#BnmRachnaWorld
#patrioticpoem
यह कविता मैंने ता 12-01-2020 को सिंहभूम हिंदी साहित्य सम्मेलन, तुलसी भवन, जमशेदपुर के तत्वावधान में गांधी घाट, स्वर्णरेखा नदी के किनारे, आयोजित "काव्य पाठ सह पारिवारिक एकत्रीकरण समारोह" में सुनायी। तस्वीरों सहित इसका वीडियो आप देखें, मेरे चैनल marmagya net को सब्सक्राइब करें, लाइक और शेयर करें। आप अपने विचार भी दें, आपके विचार मेरे लिए बहुमूल्य हैं। कविता की पंक्तियाँ इस प्रकार हैं:
सूरज का निकलना जरूरी है
जब कोहरा होने लगा हो घनेरा
रश्मियों को तम ने आकर के घेरा
शाखों पे उल्लुओं का हो गया हो डेरा
तिमिगनों का आसमां पर हो बसेरा।
हवा में घुल रही तमिस्रा को
शुभ्र ज्योत्स्ना से धोना जरूरी है।
विभावारी की कोख को चीरकर
सूरज का निकलना जरूरी है।
भ्रम के भंवर में अर्थ गौण हो गए,
स्वार्थ के शीर्ष पर विचार मौन हो गए
चीख कौन सुनता, घोर इस अरण्य में,
शोर के प्रायोजन में सच कहीं खो गए।
तान कर मुट्ठियाँ, आसमाँ की ओर,
सत्यघोष के लिए जुटना जुटाना जरूरी है।
विभावरी की कोख को चीरकर
सूरज का निकलना जरूरी है।
दुलार के लिए दुलार ही दुलार है,
प्रेम के लिए मनुहार की संवार है।
पर अगर भाषा के शब्द बदल जाएं
तो प्रहार के लिए विकल्प भी प्रहार है।
सामना हो जाये जो दुष्ट दुरात्माओं से
अहिंसा की परिभाषा त्यागना जरूरी है।
विभावरी के कोख को चीरकर
सूरज का निकलना जरूरी है।
जो आग्रही हो, राष्ट्र के उन्नयन के लिए,
जो हठी हों, दुश्मनों के विभंजन के लिए,
उनके लिए हिमालय की ऊँचाई भी कम है,
हो जाएं तैयार, अंतिम आक्रमण के लिए।
अग्नि की ज्वालाओं के बीच खोजता पथ,
वीथियों में क्रांति की मशाल बालना जरूरी है।
विभावरी की कोख को चीरकर
सूरज का निकलना जरूरी है।
©ब्रजेंद्रनाथ
YouTube link: https://youtu.be/aLRP2YVLqwc
#patrioticpoem
यह कविता मैंने ता 12-01-2020 को सिंहभूम हिंदी साहित्य सम्मेलन, तुलसी भवन, जमशेदपुर के तत्वावधान में गांधी घाट, स्वर्णरेखा नदी के किनारे, आयोजित "काव्य पाठ सह पारिवारिक एकत्रीकरण समारोह" में सुनायी। तस्वीरों सहित इसका वीडियो आप देखें, मेरे चैनल marmagya net को सब्सक्राइब करें, लाइक और शेयर करें। आप अपने विचार भी दें, आपके विचार मेरे लिए बहुमूल्य हैं। कविता की पंक्तियाँ इस प्रकार हैं:
सूरज का निकलना जरूरी है
जब कोहरा होने लगा हो घनेरा
रश्मियों को तम ने आकर के घेरा
शाखों पे उल्लुओं का हो गया हो डेरा
तिमिगनों का आसमां पर हो बसेरा।
हवा में घुल रही तमिस्रा को
शुभ्र ज्योत्स्ना से धोना जरूरी है।
विभावारी की कोख को चीरकर
सूरज का निकलना जरूरी है।
भ्रम के भंवर में अर्थ गौण हो गए,
स्वार्थ के शीर्ष पर विचार मौन हो गए
चीख कौन सुनता, घोर इस अरण्य में,
शोर के प्रायोजन में सच कहीं खो गए।
तान कर मुट्ठियाँ, आसमाँ की ओर,
सत्यघोष के लिए जुटना जुटाना जरूरी है।
विभावरी की कोख को चीरकर
सूरज का निकलना जरूरी है।
दुलार के लिए दुलार ही दुलार है,
प्रेम के लिए मनुहार की संवार है।
पर अगर भाषा के शब्द बदल जाएं
तो प्रहार के लिए विकल्प भी प्रहार है।
सामना हो जाये जो दुष्ट दुरात्माओं से
अहिंसा की परिभाषा त्यागना जरूरी है।
विभावरी के कोख को चीरकर
सूरज का निकलना जरूरी है।
जो आग्रही हो, राष्ट्र के उन्नयन के लिए,
जो हठी हों, दुश्मनों के विभंजन के लिए,
उनके लिए हिमालय की ऊँचाई भी कम है,
हो जाएं तैयार, अंतिम आक्रमण के लिए।
अग्नि की ज्वालाओं के बीच खोजता पथ,
वीथियों में क्रांति की मशाल बालना जरूरी है।
विभावरी की कोख को चीरकर
सूरज का निकलना जरूरी है।
©ब्रजेंद्रनाथ
YouTube link: https://youtu.be/aLRP2YVLqwc
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