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Thursday, January 9, 2020

पात पात बिहँस रहा प्रात (कविता)

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#poetryonnature



अरुणोदय!
प्रकृति के पूर्व क्षितिज से झाँकते अरुण के आगमन को शब्दों में बाँधने का प्रयास :
पूरी कविता इस प्रकार है:
इस कविता को सिंहभूम हिंदी साहित्य सम्मेलन, तुलसी भवन,  के तत्वावधान में 13 जून 21 को ऑनलाइन आयोजित "काव्य कलश" 
कार्यक्रम में मैंने सुनाया। इसे मेरी आवाज में मेरे यूटुब चैनल marmagya net के इस लिंक पर जाकर सुनें, चैनल को सब्सक्राइब करें, लाइक और शेयर करें। सादर!

लिंक: https://youtu.be/wW6I93dHJik

 पात पात बिहँस रहा प्रात

व्योम की नीलिमा में खोजता पथ,
कौन आ रहा, चढ़ा वह रश्मिरथ।
लालिमा में लुप्त हो रही रात,
पात-पात बिहँस रहा प्रात।

तरु-शैशवों से फूट रहीं कोंपलें,
क्यारियाँ में केसर के सिलसिले।
कामिनी जाग रही, सो रही रात।
पात -पात बिहँस रहा प्रात।

अरुणोदय में खुले कमल-दल-पट,
कैद भ्रमर सांस लेने निकला झट।
हरीतिमा में स्वर्णिमा आत्मसात।
पात-पात बिहँस रहा प्रात।

पर्वतों से सरक रही धवल-धार,
प्रकृति नटी कर रही नित श्रृंगार।
शिखरों से झाँकता अरुण स्यात,
पात-पात बिहँस रहा प्रात।

वृक्षो से लिपट रही लतायें,
संवाद में रत तरु शाखाएं।
अरुनचूड़ बोल उठा बीत गयी रात।
पात पात बिहँस रहा प्रात।

©ब्रजेंद्रनाथ

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