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बबूल वन से होकर यात्रा
विद्यालय के दिनों का संमरण
मैंने नवीं कक्षा में प्रवेश लिया था। उसी वर्ष 26 जनवरी के दिन मेरे प्रखंड वजीरगंज में निबंध प्रतियोगिता में प्रथम स्थान मिलने पर पुरस्कार लेकर हम वजीरगंज स्टेशन पर आए ही थे कि गाड़ी जो हमेशा लेट रहती थी, आज राइट टाइम थी, इसलिए छूट गयी।
अब पुरस्कार प्राप्ति के बाद की परीक्षा आगे आने वाली थी। अगली ट्रेन रात में दो बजे के बाद ही आती थी। स्टेशन पर ठंड में ठिठुरन भरी रात काटनी कितना कष्टकर होता, इसकी कल्पना से ही मन सिहर गया। जो थोड़े लोग बचे थे, सभी मेरे ही गाँव के तरफ जानेवाले थे। कुछ स्कूल के शिक्षक भी साथ में थे। गाँव यहाँ से ढाई कोस यानि 5 मील से थोड़ा अधिक था। इतनी दूर तक की पैदल यात्रा और वह भी जनवरी की ठंढी रात में मैंने पहले नहीं की थी।
मेरे साथ मुश्किल यह थी कि मेरे एक हाथ में तीन किलों के करीब पुरस्कार में मिले पुस्तकों वाला झोला था और पैर में हवाई चप्पल थी, जिसे पहनकर चलते हुए अन्य लोगों के साथ गति कायम रखने में कठिनाई पेश आ रही थी। मेरी हवाई चप्पल खेतों में पड़े बड़े-बड़े ढेलों में कभी-कभी फँस जाया करती थी। आगे बबूलों के छोटे से जंगलनुमा विस्तार से गुजरना था। उसके पास आने के ठीक पहले मेरा एक चप्पल टूट गया। वह अंगूठे के पास से ही उखड़ गया था। मैं चप्पल को झोले में नहीं रख सकता था। मन में यह संस्कार कहीं बैठा हुआ था कि पुस्तकों में विद्यादायिनी माँ सरस्वती का वास होता है। उसके साथ अपनी चप्पलें कैसे रख सकता था? मेरे लिए कोई दूसरा उपाय नहीं था। किसी को मैं मदद के लिए पुकार भी नहीं सकता था। हर कोई जल्दी घर पहुँचने के धुन में तेजी से कदम-दर-कदम बढ़ा जा रहा था। मैं पिछड़ना नहीं चाहता था। छूट जाने पर कोई पीछे मुड़कर देखने वाला भी नहीं था। मैंने एक हाथ में चप्पल उठायी, दूसरे हाथ में झोला लिए आगे बढ़ चला।
रास्ते में बीच में बबूल-वन पड़ता था। मैं बबूल-वन को करीब आधा से अधिक पार कर चुका था, कि मेरा खाली पाँव बबूल के कांटे पर पड़ा। कांटा मेरे पैर में घुस गया था। मैं थोड़ा रुका, टूटे चप्पल को दूसरे हाथ में लिया, और चुभ गए कांटे को खींचकर बाहर निकाला। खून की धारा निकलने लगी। पॉकेट से रुमाल निकाला और जोर से पैर में बाँध दिया। मन तो किया कि टूटे हुए चप्पल को किताबों वाले झोले में डाल दूँ। पर मन के अंदर बैठी हुई यह मान्यता कि पुस्तकों में वीणा पुस्तक धारिणी माँ सरस्वती का वास होता है, मैने टूटे हुए चप्पल को पुस्तकों के झोले में न डालकर, दूसते हाथ में लिया और भटकते हुए दौड़ लगायी, ताकि आगे निकल गए समूह के लोगों को पकड़ सकूँ। अंधेरे में बबूल के पेड़ों की डालों, पत्तों और कांटों के बीच झांकते चाँद के प्रकाश में, झाड़ियों से बचता-बचाता मैं बेतहाशा पगडंडियों की लकीर पर दौड़ता जा रहा था। आखिर बबूल-वन का क्षेत्र हमलोग पार कर गए। अब पहाड़ की तलहटी से होकर उबड़-खाबड़ पत्थरों पर से होकर गुजरना हुआ। पहले से ही छिल गए पैरों की बाहरी त्वचा पर नुकीले पत्थरों का चुभना मेरे लिए दर्द की एक और इम्तहान से गुजरने की बाधा प्रस्तुत कर रहा था। मैं रुका नही, और न ही मैंने हार मानी। मैं बढ़ता रहा जबतक घर नहीं पहुंच गया।
घर पहुंचते ही पहले घायल पैर में बँधे खून और धूल-मिट्टी से सने रुमाल को खोलकर पॉकेट में रखा और बिना लंगड़ाते हुए आंगन में प्रवेश किया ताकि माँ मेरे पुरस्कार पाने की खुशी का आनन्द तो थोड़ी देर मना पाए न कि मेरे पैरों के घाव को सहलाने बैठ जाए। मेरे मेरे खाट पर बैठते ही माँ गरम पानी से मेरे पैर धोने को बढ़ ही रही थी कि मैंने उसके हाथ से लगभग झपटते हुए लोटा अपने हाथ में ले लिया। माँ मेरे इस व्यवहार पर थोड़ी आश्चर्यचकित जरूर हुई, पर मैंने लोटा हाथ में इसलिए लिया था कि गर्म पानी अगर मेरे घाव पर पड़ेगा तो चीख निकलनी निश्चित थी। माँ मेरे पुरस्कार प्राप्त करने की बात सुनकर खुश होने के पहले ही दुखी हो जाएगी। जब उसे सुनाया कि मुझे पूरे प्रखंड में निबंध प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्राप्त हुआ है, तो उसका ध्यान मेरे घायल पाँव से लगभग हट गया और मैं निर्भीक होकर आँगन के चापानल के तरफ पाँव धोने के लिए बढ़ गया।
©ब्रजेंद्रनाथ मिश्र
2 comments:
मर्मस्पर्शी संस्मरण। आपके ब्लॉग की कई रचनाएँ आज पढ़ीं। यह संस्मरण बहुत अच्छा लगा।
आदरणीया मीना शर्मा जी, आपके उत्साहवर्धक उदगार मेरे सृजन के लिए पुरस्कार की तरह हैं। आपका हृदय तल से आभार!आप मेरी अन्य रचनाएँ भी अवश्य पढ़ें और अपने बहुमूल्य विचारों से अवगत कराएँ। इस लिंक पर चीन के वुहान शहर की पृष्ठभूमि पर लिखा मेरा धारावाहिक उपन्यास "कोरोना कनेक्शन" अवश्य पढ़ें। लिंक: "कोरोना कनेक्शन (धारावाहिक उपन्यास) भाग 1", को प्रतिलिपि पर पढ़ें :
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