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कॉलेज का गर्ल्स कॉमन रूम
("डिवाइडर पर कॉलेज जंक्शन" उपन्यास का अंश)
नोट:
प्रिय पुस्तक प्रेमी परिजनों,
मेरी लिखी कहानी "कॉलेज का गर्ल्स कॉमन रूम" का ऑडियो वर्शन सुमित जी की आवाज में प्रतिलिपि के इस लिंक पर आज ही प्रकाशित हुआ है। आप इसे सुनें और अपने विचार अवश्य दें:
"कॉलेज का गर्ल्स कॉमन रूम", प्रतिलिपि पर सुनें :
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--ब्रजेंद्रनाथ
("डिवाइडर पर कॉलेज जंक्शन" उपन्यास का अंश)
उसे इतना तो मालूम था कि उसका अनन्य मित्र रीतेश इसी शहर में है, लेकिन उससे इसतरह मुलाकात होगी उसने सोचा भी नहीं था। पुष्प इसी शहर में ऑफिस के काम से आया था। उसने भौतिकी से पोस्ट ग्रेजुएशन करने के बाद भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर, बॉम्बे (उन दिनों मुंबई का नाम बॉम्बे ही था) में जूनियर सायंटिस्ट के पद पर नौकरी ज्वाइन की थी। दो वर्ष नौकरी करने के बाद इस शहर में एक नए प्रोजेक्ट की फिजिबिलिटी रिपोर्ट तैयार करने के लिए बनाई गई कमिटी का वह भी मेंबर था। इसी सिलसिले में वह यहां आया हुआ था।
रितेश ने ही पीछे से उसकी पीठ पर एक धौल जमाते हुए पूछा था, "का बबुआ, तू यहां का कर तारs?"
उसे आश्चर्य हुआ था। इस शहर में कोई टूटी फूटी हिन्दी बोलने वाला नहीं था, यह खांटी भोजपुरी बोलने वाला कौन हो सकता था?
पीछे मुड़कर देखा तो रितेश ही था. "अबे तू यहां कैसे?"
"जैसे तू यहां, वैसे मैं भी यहां।"
चल - चल मिल - बैठकर इत्मीनान से बातें करते हैं। पास ही पुष्प का गेस्ट हाउस था जिसमें वह ठहरा हुआ था। दोनों वहाँ चले गए। पुष्प जिस कमरे में ठहरा था वहीं दोनों सोफे पर जैसे ही रिलैक्स हुए, बातों का सिलसिला चल निकला। शादी की या नहीं, तुम्हारी स्वीट हार्ट का क्या हुआ, नौकरी कैसी चल रही है से होते हुए बातें जल्दी ही कॉलेज के गलियारों के तरफ बढ़ चली थी। रितेश भी भौतिकी का ही छात्र रहा था, उसी कॉलेज में जिसमें पुष्प पढता था। वह भी अपनी प्राइवेट स्टीलप्लांट के स्टॉक यार्ड सेट अप करने के सिलसिले में यहां आया हुआ था।
पुष्प ने ही बात को आगे बढ़ाते हुए पूछा था, "अरे, यार गोस्वामी सर का क्या हुआ? वह लड़कियों पर बहुत फ्लाइंग किश फेंका करते थे।"
रीतेश, "अरे, सुना कि वह सिविल सर्विस कम्पीट कर गए और हमलोगों के निकलते ही कॉलेज छोड़ दिए थे।"
पुष्प, "अरे वह टेलिस्कोप वाला किस्सा जरा सुनाओ न, तुम एक्सप्लेन बहुत बढ़िया से करते हो।“
रितेश ने हंसकर ही सुनाना शुरू किया था,
तुम तो जानते ही हो यार, कि क्लास में जबतक लड़कियां नहीं हो तो उस क्लास की रौनक ही क्या? फीका, लौकी की सब्जी की तरह। कॉलेज जीवन नीम और करेले जैसे। … या तो बेस्वाद या फिर कड़वे स्वाद। इस दृष्टि से फिजिक्स और गणित विभाग बिलकुल ही ड्राई थे। कुछ भी हरियाली नहीं। बस वियावान, सुखाड़। बायोलॉजी सेक्शन वाले विद्यार्थी और ब्याख्याता अपने को भाग्यशाली समझते थे क्योंकि लड़कियों की संख्या वहां काफी अधिक रहती थी। बायोलॉजी के अलावा साइकोलॉजी ही ऐसा विभाग था जहाँ लड़कियों की संख्या अच्छी खासी थी। साइकोलॉजी में तो फैकल्टी भी लेडीज ही थी। केमिस्ट्री और कला तथा वाणिज्य के कुछ विभागों में भी कतिपय छींटों के तौर पर कुछ कुछ संख्या लड़कियों की थी। जब भी क्लास ख़त्म होती तो फिजिक्स विभाग के लड़के और प्रोफेसर अपने रूम से बाहर अवश्य निकलते ताकि बायोलॉजी की लड़कियों को केमिस्ट्री विभाग की तरफ जाते हुए ही देख तो सकें। बायोलॉजी से केमिस्ट्री तरफ जाने में बीच में ही फिजिक्स विभाग पड़ता था जिसे क्रॉस करके जाना पड़ता था। वही गलियारा ही था जो विभागों के निर्माणकर्ता की भविष्य की कल्पना के रोमांटिक सुझबूझ का बहुत ही अच्छा नमूना था। इससे फिजिक्स जैसे सुखाड़ग्रस्त विभाग - क्षेत्र में भी कुछ पलों तक रौनक छा जाती थी। इसी रौनक की चर्चा छात्र दिन भर करते नहीं अघाते थे।
एक और चर्चा अक्सर विद्यार्थियों के बीच होती रहती थी। किस लेक्चरर ने किस लड़की को किस (kiss) दृष्टि से देखा। अकेले में फ्लाइंग kiss फेंकते हुए फलां बाबू लेक्चरर देखे गए। यह अक्सर नौजवान, खूबसूरत और कुंवारे लेक्चरर के विषय में जारी की गई अफवाहें चटकारे ले - लेकर चर्चे में आती रहती थीं।
उन दिनों नए नौजवान लेक्चरर भौतिकी विभाग में अक्सर बहाल किये जाते थे मगर टिकते नहीं थे। साल छह महीने काम करते - करते कहीं - न - कहीं सिविल सर्विस की परीक्षाओं में कम्पीट करते और वहाँ की नौकरी छोड़ देते। गोस्वामी एक बहुत ही खूबसूरत, लम्बे, गोरे - चिट्टे लेक्चरर भौतिकी विभााग में नियुक्त किये गए थे। उनका ड्रेस सेन्स भी गजब का था। वे हमेशा पैंट, कोट और टाई लगाकर ही महाविद्यालय आतें। कक्षा में आते ही वे अपने कोट को, किनारे रखी कुर्सी जिसे वे चपरासी से साफ़ करवाते, में टांग देते, इसके बाद ही पढ़ाना शुरू करते। पूरी पीरियड में वे अंगरेजी भाषा का ही प्रयोग करते। इससे नीचे की कक्षाओं में हिन्दी मीडियम से पढ़कर आये छात्र / छात्रों को काफी परेशानी होती।
जिसे अब तक दोलन पढ़ते आये थे यहाँ आकर pendulum कहना था। दोलन में जो भाव था वह pendulum में कहाँ मिल सकता था। जिसे रिसाव लिखते आये थे अब leakage कहना था। क्षरण को erosion कहना था। जो अब तक अवशिष्ट था यहाँ precipitate कहना था। मैथ्स में भी बिंदु point में, सीधी रेखाएं straight line में और तिर्यक रेखाएं diagonal line में बदल गई थीं। परवलय parabola, अपरवलय hyperbola हो गया था। कुछ नई शब्दावलियाँ भी जुड़ गई थीं। Co ordinate maths, quadratic equations, Bianomial equations आदि, आदि...
यानी हिंदी माध्यम से मेट्रिक पास छात्रों को अंग्रेजी के टर्म्स सीखने में खासी मेहनत करनी पड़ रही थी। उन दिनों अंगरेजी माध्यम से पढ़कर आये छात्र बहुत कम होते थे। अगर वे होते भी थे तो माइनॉरिटी में होने के कारण किसी कोने में पड़े रहते थे।
बीच में अगर अंग्रेजी में कोई टिपोरी छाँटने लगता था तो सारे छात्र उसे घेरकर बोलना शुरू कर देते, "देख, ज्यादा बन मत, साले, देसी मुर्गी बिलायती बोल।"
इसके बाद तो उसकी अंगरेजी बोलती बंद ही हो जाती। उसके अगली कई पीढ़ियां भी अंगरेजी बोलना भूल जाती अगर थोड़े दिन इस कॉलेज में पढ़ लेतीं। यहाँ तो लेक्चरर भी कभी - कभी क्लास में अंगरेजी बोलते - बोलते सीधे भोजपुरी बोलने लगते।..और अगर अंगरेजी बोलते भी तो हर अंगरेजी के वाक्य के बाद "ठीक बा नु", "बुझाता", "सम्झा तारs न" आदि तकिया कलाम लगाना नहीं भूलते थे।
भौतिकी की ऑनर्स क्लास की लेबोरेटरी ऊपर में थी, यानि दूसरे मालेपर। ऑनर्स और पोस्ट ग्रेजुएट में दो - तीन थ्योरी क्लासेज के बाद सप्ताह के चार या पांच दिन बाकी समय लेबोरेटरी यानि प्रयोगशाला में ही बीतता था। इसमें प्रोफेसर भी लगे होते और विद्यार्थी भी लगे रहते थे। प्रोफेसर लोगों को लेट तक भी कभी- कभी विद्यार्थियों के साथ रुकना पड़ता था। जाड़े की गुनगुनी धूप दोपहर बाद सीधे दूसरे माले पर की प्रयोगशाला के वराण्डे में आती थी। जाड़े की धूप लेने की बड़ी ही उपयुक्त और माकूल जगह थी। वहां कभी - कभी दूसरे विभागों के लेक्चरर भी आकर धूप का आनंद लिया करते थे। गोस्वामी, सोमनाथ और उनके ही साथ अन्य विभागों में नियुक्त किये गए नए लेक्चरर दोपहर बाद करीब चार बजे की आसपास भौतिकी विभाग के दूसरे माले के वराण्डे की जाड़े की धूप का आनंद लेते हुए नजर आते थे।
उसी गुनगुनी धूप में नए ज्वाइन किये हुए नौजवान लेक्चरर अपने कॉलेज के दिनों के चटपटे, चुलबुले संस्मरणों और अनुभवों को एक दूसरे से शेयर करके हास्यरसमय वातावरण को थोड़ी देर जी लिया करते। अन्यथा भौतिकी विभाग वैसे भी नीरस विभाग था जिसके विभागाध्यक्ष अग्निहोत्री अपने कड़क मिजाज, शुष्क अनुशासन और सख्त स्वभाव के लिए इस कॉलेज में ही नहीं पूरे विश्वविद्यालय में मशहूर थे। वे भौतिकी की कक्षा में सबसे नए आये छात्रों का पीरियड जरूर लेते। बाकी सारे क्लास ऑनर्स में लेते थे। प्रैक्टिकल्स में वे अवश्य शरीक होते। खुद लड़कों, लड़कियां तो भौतिकी ऑनर्स में थी ही नहीं (अफ़सोस) के साथ प्रयोग के उपकरणों को चेक करते और रिजल्ट निकलने के सही तरीके भी बताते। उनकी अभिरुचि आत्मलीनता की स्थिति तक पहुँच जाया करती थी।
एक बार वे लोकल टाउन के ही किसी कॉलेज में एक्सटर्नल बनकर गए थे। वहां एक एक्सपेरिमेंट का उपकरण नही था। उस सामान को इस कॉलेज से मँगाकर उस एक्सपेरिमेंट को करने के लिए विद्याथियों की प्रैक्टिकल परीक्षा में सेट कर ही दिए। अब सोचिये जिस कॉलेज में वह उपकरण ही नहीं हो वहां का विद्यार्थी कैसे उस प्रयोग को कर सकेगा? लेकिन उन्होंने परीक्षा में भाग लेने वाले विद्यार्थियों को साफ़ - साफ़ बता दिया कि विद्यार्थी भले ही प्रयोग पूरा नहीं कर सकें, रिज़ल्ट भले ही नहीं निकाल सकें, लेकिन प्रयोग को कैसे किया जाता है अगर बता देंगे तो उन्हें फुल मार्क्स मिलेगा। इससे वे ये भी जानना चाहते थे कि कॉलेज में इस प्रयोग के बारे में इस चैप्टर के पढ़ाने के समय परिचर्चा हुई है या नहीं। यह उनकी शिक्षा और शिक्षण के प्रति प्रतिबद्धता ही थी जिसके लिए वे पूर्णतया समर्पित थे। इसलिए यहाँ पढाई होती और विद्यार्थी यहाँ पढने आते।
उनके इसी अनुशासन और जीवन - पद्धति के कारण कॉलेज में भौतिक विभाग का विशेष स्थान था। उनकी सख्ती से भौतिकी विभाग के सारे ब्याख्याता तो मार्ग दर्शन ग्रहण करते ही थे। सभी लोगों को अपने विभागाध्यक्ष पर गर्व था। सिर्फ जूनियर स्टाफ खासकर लैब असिस्टेंट और चपरासी लोगों को इतना बंधन बड़ा नागवार लगता था। उन्हीं लोगों के बीच में बहुत - सी कहानियां प्रसारित की जाती थी या उड़ाई जाती थी। इसमें कुछ विद्यार्थी ख़ास रूचि लेते थे और चपरासियों को उस्का - उस्काकर पूछते थे, "हां, तो धरीक्षण भाई दुबे जी का स्कूटर कहाँ लगा हुआ देखे?" भुनेशर को यही सब चीज गपियाने में ज्याद मन लगता था और चटपटा मनोरंजन मुफ्त में हो जाता था। भुनेशर जो ऑनर्स का छात्र था चपराशियों के रूम में दोपहर में खाने के समय पूछ रहा था, "पहले दरवाजा बंद कीजिये, टाइगर आ गया तँ हमारा तो पैंटवे उतरवा लेगा।" अग्निहोत्री को सभी ने उनके अनुशासनात्मक कड़ाई को ‘आतंक’ का नाम और उन्हें ‘टाइगर’ का उपनाम दे दिया था।
"अरे चिंता कौनो बात के नइखे, टाइगर एजुकेशन ट्रिप में बनारस गइल बाड़े।" इतने में भुनेशर के दो – तीन दोस्त और आ गए।
"अच्छा, ओही से कहीं कि आज दुबे जी के स्कूटर टाइगर के रेजिडेंस के आगे काहे लागल बा?"
धरीक्षण ने विषय को और भी चटपटा बनाने के लिए उसमें थोड़ा और भी मसाला डाला।
"सचमुच, झूठ ना नु बोलs तारs?" भुनेशर ने बात को और भी क्लियर करने के लिए पूछा था।
"अरे, कोनो आझे के बात बा? ई कॉलेज में सब केहु जानेला। तू लोग नया - नया बाड़s न, एहीसे तू लोग के पूरा बात नइखे मालूम।" धरीक्षण ने बात में रहस्य का डोज़ देते हुए कहा था। किशोर - मन और युवा तन में उत्सुकता बढ़ती जा रही थी।
"अच्छा ई बतावs कि टाइगर के बीबी कइसन बाड़ी?"
"खूब भरा - पूरा गदराईल बदन वाली एकदम गोर दप - दप, अँधरिया में इंजोर लेखा मस्त पर्सनालिटी बा। तुहु लोग देखब तs देखते रह जइबा।"
"और अँधरिया के बा?"
"वही तहर टाइगर। देखत नइख, कइसन भयंकर चेहरा बा?"
"थोड़ा डार्क कलर हैं लेकिन चेहरा तो ठीक ही है।" भुनेशर के एक दोस्त ने कहा था।
"उनकर बाल - बच्चा?"
"देखत नइख टाइगर के सर में एको बाल बाँचल बा? अब का होई बाल - बच्चा?"
"अरे नहीं भाई, देखते नहीं कॉलेज में कितना समर्पण के साथ सारे कार्यों में ब्यस्त रहते हैं। इसीलिये घर पर थोड़ा कम समय दे पाते होंगे। आगे सब ठीक हो जाएगा।" उनमें से एक समझदार जैसी समझ रखने वाला भुनेशर का दोस्त बोला था।
"अच्छा, तू आपन विश्लेषणात्मक विवरण अपने पास रखs। तहरा से कोउ पूछता?"
अब धरीक्षण के बोलने की बारी थी, "अरे ई बुढऊ जेकरा के तू लोग टाइगर कहेलs, कॉलेज में पढ़ाते रह जैंहे और माल केहु और चाभले जाइ।"
एक हलका - सा ठहाका गूंजा था।
"जा, जा तू लोग पढ़ाई करs। ई सब पर ध्यान नइखे देवेके। और ई सब बात बाहर जाके केहु से मत कहिअ कि धरीक्षण ऐसे बोल रहा था। " धरीक्षण ने जबरदस्ती उन लोगों को वहाँ से भगाया था।
दुबे जी हॉस्टल नंबर 3 के वार्डन थे। दुबे जी अकेले ही हॉस्टल में रहते थे। उनकी पत्नी गाँव में रहती थी। उनका एक भतीजा भी उनके साथ उसी हॉस्टल में रहता था। हॉस्टल से कॉलेज आने के रास्ते में ही अग्निहोत्री जी का रेजिडेंस पड़ता था। दुबे जी का स्कूटर पहले वहां पर रुकता था तो लोग समझते थे कि साहब के साथ कंसल्टेशन के लिए रुक गए हैं। कभी - कभी दुबे जी के पीछे बैठकर अग्निहोत्री साहब कॉलेज भी आते थे। लेकिन यही बात, जब बात पर और बात बनकर आगे बढ़ती गयी तो दुनिया के जैसे अन्य जगह पर लोग होते हैं कि उनको अपने काम से फुर्सत - ही - फुर्सत होती है और दूसरों पर नजर रखने की बड़ी बुरी आदत होती है, वैसे ही लोग यहाँ पर भी थे। बस तभी से दुबे जी और उनका वेस्पा स्कूटर आ गया उनकी नज़रों के स्कैन के रेंज में।
"अरे, आज दुबे जीवा तो साहब के एब्सेंस में भी उनके घर पर कंसल्टेशन कर रहा था … हम भी उनके घर के पास वेस्पा ऐश कलर का स्कूटर लगा देखे थे” ... जितने लोग उतनी बातें। …तरह - तरह के लोग तरह - तरह की बातें ... लोगों को तो बस मसाला चाहिए। सच और अफवाह में उतना ही अंतर होता है जितनी बार उनकी पुनरावृत्ति होती है। अगर अफवाह की पुनरावृत्ति की संख्या बढ़ती जाय तो सच धुंधला पड़ने लगता है।
*****
…तो फिर वहीं भौतिकी विभाग के दूसरे माले पर दोपहर बाद जाड़े की गुनगुनी धूप, हल्की - सी ठंढक, अलसाया सूरज, मादकता भरी साँझ को आलिंगनबद्ध करने के लिए अस्ताचल की और दौड़ लगाता सूरज और वहां नौजवान लेक्चररों के बीच हँसने - हँसाने का चलता दौर। … उस दिन सूरज के क्रोमोस्फेयर और स्पेक्ट्रम स्टडी के लिए पावरफुल टेलिस्कोप को अरसे बाद बाहर निकालकर बरामदे में सेट किया गया था। इसमें गोस्वामी काफी रूचि ले रहे थे। अचानक सूर्य के तरफ से टेलिस्कोप का एंगल थोड़ा बदला और पता नहीं कैसे सामने के तरफ चला गया।
"अरे, ये क्या फोकस हो गया?" गोस्वामी चिल्ला उठे, "जल - परी या चन्द्र - परी तो सुना था, ये सूर्य - परी सूर्य के उत्तप्त और उष्ण वातावरण में कैसे प्रकट हो गई?"
"गोस्वामी जी आपको हिंदी का श्रृंगार - रस सन के स्पेक्ट्रम, में कहाँ दिखाई दे गया। जरा हम भी देखें।" गोस्वामी को हटाते हुए सोमनाथ सिंह बोले।
सोमनाथ देखे जा रहे थे, चुपचाप, कुछ बोल भी नहीं रहे थे।
"क्या हुआ? चुप क्यों हो?" गोस्वामी की उत्सुकता चरम पर पहुँच रही थी।
"अरे रुको भी, जरा सा रुको।"
सामने गर्ल्स कॉमन रूम था। वहां का एक - एक परिदृश्य, कण - कण डिटेल्स के साथ उजागर होता हुआ समीप आ गया। कॉमन रूम की दीवारों से सरकती सूर्य की किरणें वहां के मैदान पर बिखरती जाती थी। वहां लड़कियां कोई दुपट्टे में कोई दुपट्टे से बाहर एक दूसरे की बाहों में बाहें डाले, एक - दूसरे पर लेटी - अधलेटी खिलखिलाती दीख रही थी। आवाज तो कुछ सुनाई नहीं दे रही थी। वहां के मैदान में ही कहीं दो - चार के समूह में बैडमिंटन खेल रही थीं, तो कहीं दस - बारह के समूह में वॉलीबाल। बॉल या बैडमिंटन के कॉर्क के उछालों के साथ उनके वक्ष - प्रदेश की उछाल लेती गेंदें, शोख अदाएं, सबकुछ इतना विस्तृत रूप में अचानक पास आ जाएगा यह तो कल्पना से परे था। ऐसा लग रहा था जैसे दिन में ही तारे, नहीं, नहीं, तारिकाएं, अप्सराओं की वेशभूषा और अदाओं के साथ जमीन पर उतरी हों। इसके बाद तो सारे बैठे नौजवान लेक्चररों की टेलिस्कोप के तरफ बारी - बारी से देखने की होड़ - सी लग गई।
"वाह! आप अकेले - अकेले ही नजारा लिया करते थे, मिस्टर गोस्वामी? दिस इज़ नोट फेयर।" प्रो राजाराम ने शरारत - भरे लहजे में कहा था।
"राजाराम बाबू, आपको तो इस सबमें रूची नहीं थी। भाभी जी जानेंगी तो क्या सोंचेंगी? दिस इस आल्सो नोट फेयर सर।" गोस्वामी जी ने कहा था। एकमात्र राजाराम बाबू ही वहां पर शादी - शुदा थे।
उनमें से कइयों ने विशेष जगहों में, विशेष स्थानों पर फोकस करने के लिए टेलिस्कोप के एंगल को चेंज करना शुरू कर दिया।
सोमनाथ जी ने भी एंगल घुमाना शुरू ही किया था । ऐसा करते हुए वे बोले भी जा रहे थे, "मैं जहाँ पर फोकस करना चाह रहा हूँ, वहां तो हो ही नहीं रहा है।"
"कहाँ फोकस करना चाह रहे हैं, सर?"
"अबे, तू अपनी आवाज बदल कर क्यों बोल रहा है? तुम्हारी यही अदाएं तुम्हें बिलकुल अलग खड़ा कर देती हैं, अन्य लोगो से।"
पीछे उनके कंधे पर एक थपकी - सी पडी, "लाइए मैं ही फोकस कर देता हूँ।"
"अच्छा, तू ही कर।" कहकर जैसे ही उन्होंने गर्दन घुमाई, तो जो कुछ उन्होंने देखा उससे तो उनके होश ही उड़ गये। काटो तो खून नहीं। पीछे ड़ॉ अग्निहोत्री, दी टाइगर, विभागाध्यक्ष खड़े थे।
"अच्छा, तो इसीलिये आपलोग देर शाम तक इधर रुक रहे हैं। मैं समझ रहा था कि आपलोगों का कोई रिसर्च चल रहा है और निकट भविष्य में किसी अन्तर्राष्ट्रीय मैगज़ीन में आपलोगों का कोई शोध - पत्र छपा हुआ देखने को मिलेगा। आइये जरा मेरे चैम्बर में आइये।"
चैम्बर में सारे लेक्चरर के आने के बाद दरवाजा बंद कर दिया गया। "क्या राजाराम बाबू आपसे ऐसी उम्मीद नहीं थी। ये सभी तो नौजवान हैं। नई उमंगें हैं। जवानी में कुछ - कुछ गलतियां हो जाया करती हैं। आप तो शादी - शुदा हैं, बाल - बच्चे वाले हैं। आपको यह सब शोभा देता है?"
राजाराम बाबू सोच रहे थे, "किस मुहूर्त में वहां पर गए थे? जो कुछ कहना था वो बॉस को ही कहना था। वे तो आज रिसीविंग एंड में खड़े थे।“
"और आपलोग, मेरी टीम के नौजवान सदस्य। आपलोगों के ऐसे आचरण पर मुझे शर्म आ रही है। पता नहीं आपलोगों को आ रही है या नहीं। आपलोग फिल्म एक्टिंग और प्रोडक्शन के प्रोफेसन में नहीं हैं। आपलोग शिक्षण के ब्यवसाय से जुड़े हैं। आपलोगों को वह बनके दिखाना होगा जो आप दूसरे को बनते हुए देखना चाहते हैं। आदतों से आचरण बनता है, आचरण से चरित्र बनता है और चरित्र से ब्यक्तित्व बनता है। आप दूसरों के ब्यक्तित्व को संवारने के कार्य में लगे हैं और अपनी आदतों को नहीं सुधारेंगे तो दूसरे को सुधारने में क्या भूमिका निभाएंगे। आप चाहें तो ये सारी बातें भोजपुरी, अंगरेजी, तमिल सारी भाषाओं में समझाऊं, अगर नहीं समझ आया हो तो।"
सारे लेक्चरर चुपचाप सुन रहे थे। इसके अलावा कोई उपाय भी नहीं था।
"जाइये, आगे से इसका ख्याल रहे। और जो सारी बातें यहाँ हुई हैं वे यहाँ से बाहर नहीं जाएँ, इसका भी ख्याल रहे।"
सारे नौजवान ब्याख्याता सर झुकाये निकले थे। सोमनाथ सिंह मन - ही - मन बुदबुदा रहे थे, "बड़े आये हमलोगों को ज्ञान देने वाले। । दुबेजीवा के सामने ये चरित्र - ज्ञान का गान कहाँ चला जाता है? हमेशा इनके शहर से बाहर जाते ही इनके घर पर कंसल्टेशन करने पहुँच जाता है।"
गोस्वामी अपने कमीज के कालर को ठीक करते हुए और बाँहों को झाड़ते हुए, जैसे कुछ हुआ ही नहीं बोले, "प्रोफ. सोमनाथ, आप कुछ बोल रहे थे क्या?"
"नहीं नहीं, हम क्या बोलेंगे? सारा चरित्र - निर्माण का जिम्मा यही उठाये हुए हैं। इसीलिये तो दुबइया चरित्र - निर्माण में लगा.... खैर छोड़िये, चलिए, ये सब तो होता ही रहता है....।"
इस लम्बी क्लास के बाद फिर कभी भौतिक विभाग के दूसरे माले के बरामदे में टेलिस्कोप नजर नहीं आया।
इस वाकये को याद कर दोनों दोस्त हंसी से लोटपोट हो रहे थे। कॉलेज की पूरी मस्ती उस गेस्ट हाउस में जीवंत हो उठी थी।
प्रिय पुस्तक प्रेमी परिजनों,
मेरी लिखी कहानी "कॉलेज का गर्ल्स कॉमन रूम" का ऑडियो वर्शन सुमित जी की आवाज में प्रतिलिपि के इस लिंक पर आज ही प्रकाशित हुआ है। आप इसे सुनें और अपने विचार अवश्य दें:
"कॉलेज का गर्ल्स कॉमन रूम", प्रतिलिपि पर सुनें :
https://hindi.pratilipi.com/audio/lozpzudmntmz?utm_source=android&utm_campaign=audio_content_share
भारतीय भाषाओमें अनगिनत रचनाएं पढ़ें, लिखें और सुनें, बिलकुल निःशुल्क!
--ब्रजेंद्रनाथ
1 comment:
जी नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (16-03-2020) को 'दंभ के आगे कुछ नहीं दंभ के पीछे कुछ नहीं' (चर्चा अंक 3642) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
*****
रवीन्द्र सिंह यादव
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