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Friday, March 13, 2020

रामचरितमानस का कम चर्चित स्त्री पात्र- त्रिजटा (लेख)

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#रामचरितमानस के स्त्री-पात्र









रामचरितमानस का कम चर्चित स्त्री-पात्र
त्रिजटा
'रामचरितमानस' एक कालजयी ग्रंथ है। यद्यपि सृष्टि में नश्वरता और परिवर्तन की प्रक्रिया एक शास्वत सत्य है, परंतु कुछ रचनाएँ ऐसी होती है जो इस प्रक्रिया से इतर समय के बहाव के साथ और भी प्रासंगिक होती जाती हैं।
अध्ययन के समुद्र में विचार के मेघ मस्तिष्क में उमड़ पड़ते हैं और शब्दों की झड़ी लग जाती है और इसतरह रचना की बेगवती धार नदी के रूप में बह निकलती है। उस युग का पाठक उसकी विशालता से अभिभूत हो उठता है। पर वही नदी जब गंगा की तरह अजस्र अमृत धार लिए निरंतर प्रवाहित होती रहती है, तो वह कालजयी कहलाती है। रामचरितमानस गंगा की तरह है जिसका मूल स्रोत हृदय हिमालय का गोमुख है। यह उद्गम अत्यंत सूक्ष्म प्रतीत होता है, पर काल बीतते-बीतते यह वामन की तरह विराट होता चला जाता है।
इसी विराट महासमुद्र में असंख्य जीव-जंतु और रत्न भरे पड़े हैं। मैंने उनमें से कुछ घोंघे जैसे जीवों को सतह पर लाने की प्रक्रिया में एक ऐसा पात्र चुना है, जो कथा प्रवाह में अपनी अहम भूमिका निभाता है। परंतु स्त्री - पात्र होने के कारण और राक्षस कुल में जन्म लेने कारण पाठकों के उपेक्षा भाव से ग्रस्त भी हो सकता है। आपने सही अनुमान लगाया है। मैं त्रिजटा के बारे में चर्चा करने जा रहा हूँ। कुछ पात्रों को महाकाव्य-महल के सृजन के समय मुख्य पात्रों को महल की ऊंचाई प्रदान करने के लिए नींव में डाला जाता है। त्रिजटा जैसे पात्र भी राम - सीता के चरित्रों को नई ऊंचाइयों प्रदान के लिए गढ़े जाते हैं। इसलिए वे अपनी छोटी भूमिका में भी गहरा प्रभाव छोड़ते हैं।
रावण के द्वारा चोर की भांति छुपकर सीता का अपहरण कर लिया जाता है। सीता को रावण लंका में अशोक वन में रखता है। अशोक वन में सीता की देखभाल करने के लिये, जिन विश्वस्त और समझदार स्त्रियों को जिम्मेवारी दी जाती है, त्रिजटा भी उसमें एक है। संभवतः त्रिजटा उनमें सबसे विदुषी है। इसीलिए उसके विचार सबों के लिए सर्वमान्य होते हैं।
आगे की कहानी - क्रम पर विचार करने से पहले इस पर विचार किया जाय कि रावण उन स्त्रियों के समूह में त्रिजटा को क्यों शामिल करता है? कहा जाता है कि त्रिजटा रावण, कुंभकरण और विभीषण की बहन थी। रामायण के कुछ अन्य स्थानों की कहानियों में त्रिजटा को विभीषण की पुत्री कहा गया है। लेकिन यह सम्बंध मान्यता और विश्लेषण पर सही नही उतरता है।
रावण ने सीता को अपने महल से दूर अपने विश्वस्त परिचारिकाओं के सम्पर्क में रखना इसलिए जरूरी समझा हो कि राक्षसियों के एक समूह के द्वारा समझाने से सीता के मस्तिष्क में यह बात बिठाई जा सके कि इस विकट परिस्थिति में रावण की रानी बनना ही उसके लिए श्रेयस्कर होगा। शायद त्रिजटा भी इसी दिशा में सोच रही होगी। रावण की निकटस्थ होने के कारण उसने सीता को संरक्षण देने के लिए चुनी गई राक्षसियों के समूह का नेतृत्व भी त्रिजटा को सौंपा हो।

विचार का क्रम एक ओर और भी जाता है। मंदोदरी रावण की सुंदर और सर्वप्रिय रानी थी। वह सुशीला और धर्मशीला भी थी। उसके आचरण को रामचरितमानस में भी उदात्त स्त्री के रूप में वर्णित किया गया है। वह समय-समय पर रावण के दंभाचरण के विपरीत सही वर्ताव और व्यवहार के परामर्श भी रावण को दिया करती थी। जब उसने सुना होगा कि राम और लक्ष्मण ने खर - दूषण का वध किया। सूर्पणखा के आचरण के कारण उसके नाक कान काटे गए। इसके पहले राम ताड़का का वध कर चुके थे, राम ने विश्वामित्र जी के यज्ञ की रक्षा के समय मारीच को अपने वाणों से सौ योजन दूर फेंक दिया था और सुबाहु का तो वध ही कर दिया था। इतनी वीरता और शौर्य के धनी पुरुष की पत्नी को छल से अपहरण कर रावण द्वारा लाया गया है। शायद सीता के धनुष यज्ञ की भी कहानी मंदोदरी के पास अवश्य पहुंची होगी। उसी सीता को रावण अपहृत कर ला चुका है। उसी सीता को मंदोदरी के समानांतर या ऊँचे स्तर पर स्थापित कर लंका की पटरानी बनाना चाहता है। उस सीता से रावण के प्रतिबंधों के कारण वह अकेले में सीधे तो नहीं मिल सकती। इसलिए रावण के साथ मिलने जाते हुए अपनी सबसे प्यारी ननद त्रिजटा को भी अपने साथ रखकर सीता के बारे में सबकुछ जानना चाहती हो।
क्या सीता सामान्य मानवी है? क्या सीता कंचन मृग के प्रति आकर्षण से बंधी हुई कंचन- कृति लंका की पटमहिषी बनाना चाहती है? क्या सीता के अपूर्व सौंदर्य के आकर्षण से बंधे हुए ही रावण अप्रत्यक्ष रूप से ही सही चौर वृत्ति अपनाकर उसका अपहरण कर अपनी संगिनी बनाना चाह रहा है? इन सारे अनुत्तरित प्रश्नों का उत्तर संभवतः त्रिजटा के सीता के साथ लंबे सम्पर्क के बाद प्राप्त हो जाय। इसलिए यहाँ पर यह मानने में अनर्थ नहीं होगा कि त्रिजटा को मंदोदरी के द्वारा सीता की सच्चाई जानने की लिए भी सीता को अशोकवन में सुरक्षा प्रदान करने वाली स्त्री सुरक्षा कर्मियों में शामिल करवाया गया हो।

राम का संदेश और राम जी के आशीर्वाद की शक्ति से सम्पन्न हनुमान जब मैनाक पर्वत के थकित श्रम से विश्रांति दूर करने के अनुरोध को नम्रता पूर्वक अस्वीकार करते हुए आगे बढ़ते हैं, तो सुरसा और लंकिनी जैसी बाधाओं से सामना होता है। उन्हें युक्तिपूर्वक विष्णुभक्त विभीषण की कुटिया में पहुंचते ही आगे के पथ संचलन की जुगत मिल जाती है। उसी जुगत को अपनाकर वे अशोक वाटिका में पहुँचते हैं। उन्होंने सीता को पहले नहीं देखा है, पर उस वाटिका में एक ही स्त्री है, जो
कृष तनु सीस जटा एक बेनी।
जपती हृदय रघुपति गुण श्रेणी।। (सुंदरकांड, रामचरितमानस)
हनुमान जी सूक्ष्म रूप में वहाँ पहुँच जाते हैं, जहाँ कोई भी राम का स्मरण कर रहा हो। उस वाटिका में सिर्फ एक स्त्री के अतिरिक्त कोई भी राम का सुमिरन नहीं कर रहा था, यानि सिर्फ सीता को छोड़कर। हनुमान जी का अनुमान सही निकला जब
तेहि अवसर रावनु तहँ आवा। संग नारी बहु किएँ बनावा।।
और रावण ने सीता को कैसे समझाया?
कह रावण सुनु सुमुखि सयानी। मंदोदरी आदि सब रानी।।
तव अनुचरी करउँ पन मोरा। एक बार बिलोकु मम ओरा।।
(सुंदरकांड, रामचरितमानस)
सीता की शक्ति के सामने रावण जैसा शक्तिशाली असुर भी निरुपाय है। क्या है उनकी शक्ति ? मात्र "अवधपति का सुमिरन"
तृन धरि ओट कहति बैदेही। सुमिरि अवधपति परम सनेही।।
सुनु दसमुख खद्योत प्रकासा। कबहुँ कि नलिनी करई विकासा।। (सुंदरकांड, रामचरितमानस)
और इन सारे संवादों की साक्षी त्रिजटा रही है।
स्वयं को "खद्योत सम" सुनते ही रावण के क्रोध का पारा आसमान पर चढ़ जाता है। वह सीता के वध करने पर जब उतारू हो जाता है, तब "मयतनया" यानि मंदोदरी नीति की बात समझाकर सीता को समझाने और समझने के लिए 'मास दिवस' यानि एक महीने का समय मांगती है, जिसे रावण अपनी स्वीकृति प्रदान कर वहाँ से चला जाता है। उस एक मास तक त्रिजटा को भी अशोक वाटिका में रखने की सहमति में मंदोदरी की भी सम्मति है, इसके निश्चित संकेत मानस में हैं।
मंदोदरी की नीति की बातें तो रावण ने सुन ली। लेकिन उसे कितना अमल में लाया या ला सका, उसके आगे के कर्तित्व से पता चलता है। ऐसे ही लोगों के लिए तुलसीदास ने कहा है:
सठ सन विनय कुटिल सन नीति। सहज कृपाण सन सुंदर नीति।।
इसीलिए उसने सारी राक्षसियों को बुलाकर सीता को हरतरह से तंग करने और डर तथा भय दिखाकर उसकी (रावण की) बात मनवाने के लिए कहा। रावण के जाते, जैसे ही राक्षसियों ने सीता को त्रास देना शुरू किया, त्रिजटा से यह देखा नहीं गया।
यहाँ पर त्रिजटा अपने पात्र को जीने लग जाती है। त्रिजटा अपने स्वप्न की बात सबों को सुनाते हुए, सीता जी की वास्तविकता के बारे में बताती है। त्रिजटा जैसे पात्र का सृजन बाल्मीकि जी ने "रामायण" में और गोस्वामी तुलसीदास जी ने "रामचरितमानस" में किया है। एक नए पात्र को जोड़ने के पीछे रचनाकार का क्या उद्देश्य हो सकता है?
एक: कहानी के कथानायक या नायिका के चरित्र को ऊँचाई प्रदान करना
दो: कहानी के मूल तत्व और सिंद्धांत को स्थापित करना
तीन: कहानी को आगे बढ़ाने की दिशा देना
चार: कहानी में स्वयं उस पात्र की पात्रता और सार्थकता स्थापित करना।
इन चारों बिंदुओं पर विचार करते हुए हमलोग त्रिजटा के चरित्र पर दृष्टिपात करते हैं:
★एक: कहानी की नायिका सीता के चरित्र को विषेशतः कैसे ऊँचाई प्रदान करने की कोशिश करती है? इसपर विचार करने से पहले हमलोग त्रिजटा द्वारा राक्षसियों को सुनायी गयी उसके सपने की बात पर विचार करें।
त्रिजटा एक विष्णुभक्त की बहन है। उसके अवचेतन मन में अवश्य कोई बात होगी, जो सपना बनकर उसके मानस पटल पर दृश्यमान होती है। विष्णुभक्त का मन निश्छल होता है। लंका में रहते हुए रावण के कुकृत्यों के प्रत्यक्षदर्शी होते हुए भी कुछ नहीं कर पाने की विवशता में उसने विभीषण को हर क्षण दहकते हुए देखा होगा। अपने राक्षस कुल में जन्म को भी कोसा होगा। पर कर्म शास्त्र सिद्धांत के अनुसार अपने पूर्ववर्ती जन्मों के कुकर्मो का फल समझकर मन को समझाना पड़ा होगा। क्योंकि व्यक्ति को अपने पूर्वकृत कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है, "अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम"। मानस में भी इस सिद्धांत की पुष्टि की गयी है:
करम प्रधान विश्व करि रखा। जो जस करइ सो तस फल चाखा।
त्रिजटा को सीता की उपस्थिति से शायद महसूस हुआ होगा कि अपने अशुभ कर्मों, जिसके कारण राक्षसों के कुल में उसका जन्म हुआ, को शुभ कर्मों के परिपालन और आचरण द्वारा उनके प्रतिगामी प्रभाव को कम करने का समय आ गया है। इसीलिए वह सपने की बात सुनाती है।
"सबन्हौ बोली सुनाएसि सपना। सीतहि सेइ करहु हित अपना।।"
क्यों सीता की सेवा के लिए राक्षसियों को सीख देती है?
क्योंकि:
"सपने बानर लंका जारी। जातुधान सेना सब मारी।
खर आरूढ़ नगन दससीसा। मुंडित सिर खंडित भुज बीसा।।
एहि विधि सो दक्षिण दिसि जाई। लंका मनहु विभीषण पाई।।
यह सपना मैं कहउँ पुकारी। होइहि सत्य गए दिन चारी।।"
(सुंदर कांड, रामचरितमानस)
एक बानर आकर पूरी सोने की लंका जला देता है। रावण की सारी सेना का वध कर दिया जाता है। रावण की बीसों भुजाओं को काटकर, दसों सिर का मुंडन कर , गदहे पर बिठाकर, दक्षिण दिशा को भेजा जाता है और लंका का राज्याभिषेक विभीषण को किया जाता है। यह सपना दो चार दिनों में ही सत्य होने वाला है। सीता को कोई साधारण स्त्री समझने की भूल मत कर।
इसीलिए "सीतहि सेइ करहु हित अपना।"
इतना सुनते ही सारी राक्षसियों को अपनी गलती का भान होता है और वे सीता जी के चरणों से लिपटकर क्षमा याचना करते हुए उनकी सेवा में रत हो जाती हैं।
शक्तिस्वरूपा, भक्तिस्वरूपा सीता माता के चरित्र को त्रिजटा इतनी ऊंचाई तक पहुँचाती है, इसतरह रचनाकार का इस चरित्र के सृजन का पहला उद्देश्य पूरा हो जाता है।
★दो: क्या त्रिजटा अपने छोटे से रोल में कहानी के मूल तत्व और सिद्धांतों को स्थापित करने की दिशा में आगे बढ़ पाती है?
सीता, भक्ति की शक्ति की साकार स्वरूप हैं। त्रिजटा इसे स्थापित करती है। उसने सीता को एक तृण की ओट से रावण जैसे प्रतापी, बलशाली नृप को "खद्योत सम" कहकर चुनौती देते हुए देखा है। ऐसी स्त्री कोई सामान्य नारी नहीं हो सकती। त्रिजटा को इसका भान हो गया है कि कोई दैवी शक्ति ही मानवी रूप में जगत के हित के लिए लीला करने आई है। इसीलिए जब सीता उससे अनुनय-विनय करते हुए कहती है,
"त्रिजटा सन बोली कर जोरी। मातु बिपत्ति संगिनी तैं मोरी।।
तजौं देह करू बेगी उपाई। दुसह विरह अब नहीं सही जाइ।।"
तो त्रिजटा को यह समझते हुए देर नहीं लगती कि सीता मइया, जो स्वयं जगज्जननी है, उसे "मातु" का सम्बोधन देकर उस जैसे अकिंचन का मान बढ़ाने की ही चेष्टा कर रही है। सीता ने त्रिजटा में माता का जो स्वरूप देखा, उससे त्रिजटा को अवश्य भान हुआ होगा मानो उसने राक्षस कुल में भी जन्म लेकर मोक्ष प्राप्त कर लिया हो। जिस लंका में भौतिकता और दैहिक सुख को प्राप्त करने को ही जीवन लक्ष्य समझा जाता है, वहाँ भी अपनी सात्विकता और ईश्वर भक्ति के सातत्य को कायम रखने वाली त्रिजटा को माँ के उच्च धरातल पर भक्तवत्सला सीता माता ही स्थापित कर सकती है। इसतरह त्रिजटा के पात्र द्वारा गोस्वामी जी ने कथा के मूल तत्व और सिद्धांत को स्थापित किया है।
★तीन: यहाँ से कहानी को आगे बढ़ाने की दिशा मिल जाती है। वैसे सीता स्वयं जगतमाता है, पर उनके लिए विकट और विपरीत परिस्थितियों में भी जो सहानुभूति रखता है, उसे मान देना भी वात्सल्यता की रसानुभूति निःसृत करता है। इसलिए उसका मान रखने और मान देने से कहानी को एक दिशा मिलती है। त्रिजटा सारी राक्षसियों, जिसे रावण ने सीता को संत्रास देने के लिए वहाँ रखा था, उसी के द्वारा सीता की सेवा करवाती है। राक्षसियों के स्वभाव में यह परिवर्तन त्रिजटा जैसी ईश्वर भक्ति में लीन स्त्री ही कर सकती है। इसलिए सीता अपनी अन्तर्भावनाओं को त्रिजटा से साझा करती है। अपनी गलती के कारण जिन परिस्थितियों में उन्हें राम से दूर विरह के समुद्र में डूबने की स्थिति बन रही है, त्रिजटा के रूप में एक नौका मिल जाती है, जो उन्हें जीवन को आगे जीने की आशा जगाती है। सीता को वह समझाती है कि शीघ्र ही राम आयेंगें और रावण का नाश कर तुम्हे इस कष्ट से मुक्त करेंगें। इसतरह आगे कहानी किस दिशा में बढ़ेगी इसका निश्चित संकेत मिल जाता है।
★चार: त्रिजटा अपने सपने की बात राक्षसियों को बताकर उनके मन मस्तिष्क में सीता के प्रति सम्मान को जगाने में सफल होती है। इसे कहा जा सकता है कि कहानी में वह स्वयं अपनी पात्रता स्थापित करती है। वह सीता की शक्ति को जिस रूप में प्रत्यक्ष देखती है, वह उस काल, स्थान और समय में उसके जीवन की सबसे अद्भुत और अलौकिक संदर्भ के जुड़ने के जैसा है। उसकी कल्पना से परे उसका जीवन धन्य हो गया, ऐसे आत्मानुभव से वह गुजरती है।
उपसंहार: कभी-कभी छोटे पात्र भी कथानक को नई ऊँचाई देने में अहम भूमिका निभा जाते हैं। त्रिजटा जैसे पात्र छोटे रोल में भी बामन की तरह हैं, जो देखने में छोटे हैं पर विराट होने की क्षमता रखते हैं। बामन से विराट की यात्रा ही तो जीवन को मोक्ष की ओर ले जाने वाला होता है। इस तत्व का भेद ही त्रिजटा के पात्र को उदात्त बना देता है।
©ब्रजेंद्रनाथ











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