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Wednesday, September 5, 2018

एकलब्य कह रहा,,,(कविता)

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#poemmotivational














एकलब्य कह रहा

एकलब्य कह रहा,
अपने गुरु से:
मैं समझता हूँ
उस गुरु की वेदना को,
अंतर्द्वंदों में छलनी होती
टूटते सिद्धान्तों और आचार संहिताओं की
विवशताओं से निर्धारित होती
जीवन यापन की परिकल्पना को।

जिस गुरु को अपनी ही संतान के लिए,
आंटे के घोल को रंग दे सफ़ेद
आभास देना पड़ा हो दुग्धपान के लिए।
जिस गुरु को सर्वश्रेष्ठ धनुर्विद्या में
निष्णात होने के उपरांत भी,
अपनी संतान को पिलाने को दूध,
मांगनी पड़ी हो अपने ही परम मित्र से,
कम - से - कम एक गाय की भिक्षा।
जिसे अपमान का दंश
विवशताओं के विषदंत
के बीच देनी पड़ी हो
परिवार के पालन की घोर परीक्षा।

उस गुरु के दरबारी गुरु
में बदल जाने में बहुत कुछ
भीतर - भीतर मरा है।
बहुत कुछ भीतर- भीतर
मारना पड़ा है।
जिसे नृप के अन्न से अपने
परिवार को पालकर
गुरुकुल चलाने की विसंगति
को झेलना पड़ा है,
जिसे न चाहकर भी
नृप परिवार के कुशल, अकुशल
उद्दंड, उच्छ्रंखल संतानों को
शिष्यरूप में स्वीकारना,
भाग्य की विडंबना हो।
उसे किसी  राजपरिवार के समर्पित,
निष्ठावान संतान को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर
बनाने की विवशता मैं समझ
सकता हूँ गुरुदेव।

आपने अपनी आत्मा के हवनकुंड में,
अपनी सांसों के साथ
हवन किया है अपने आत्मसम्मान का।
वरना आप भी महर्षि हरिद्रुम गौतम की तरह
एक सत्यभाषी बालक
जिसे अपनी माता के अतिरिक्त
पता नहीं उसका पिता कौन?
उसकी माता अपनी युवावस्था में कई
पुरुषों के संपर्क में आई
या थी लाई गई।
पुराण और उपनिषद है मौन।
उस बालक की सत्यता ही
थी उसका ब्राह्मण और ब्रह्मचर्य
होने का प्रमाण।

मैंने अपने समर्पण और निष्ठा
के बीच नहीं आने दी
महत्वाकांक्षा की विकृति को,
आपके प्रति सत्यता और एकाग्रता
ही थी आपके लिए मेरी आहुति
और हर सांस में व्रत और सम्मान।
क्या यही नहीं था मेरे ब्रह्मचर्य
और ब्राह्मण होने का प्रमाण?

आपने तो सिर्फ मेरा अंगूठा मांगा,
आप अगर मेरा यौवन, पौरुष, निष्ठा और
पूरा जीवन भी मांगते
तो आपके चरणों में समर्पित कर
देता अपनी सांस-सांस, प्राण-प्राण।
मुझे जितनी आत्मसंतुष्टि मिलती
शायद उतनी अभी नहीं मिल रही।
आप तो गुरु दक्षिणा लेने में भी
कृपणता और संकोच से घिर गए गुरुदेव।
इसका मलाल मुझे जीवन पर्यंत रहेगा,
मेरे गुरु ने गुरुदक्षिणा भी ठीक से नहीं मांगी।
मैं हतभाग्य शिष्य उन्हें
संतुष्ट भी नहीं कर सका।
संतुष्ट भी नहीं कर सका,
देकर मात्र अंगूठे का  दान...!

©ब्रजेन्द्र नाथ मिश्र
दिनांक: 2-06-2017
वैशाली, सेक्टर4, दिल्ली एन सी आर।

नोट: महाभारत में वर्णित एकलब्य के प्रसंग की जब समीक्षा होती है, तो हर द्रष्टा को द्रोण के द्वारा गुरुदक्षिणा में  एकलब्य का अंगूठा मांग लेना ही दिखता है। इससे सीधा गुरु द्रोण का वह पूर्वाग्रह जुड़ा हुआ लगता है, जिससे वह अपने प्रिय शिष्य अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर के रूप में स्थापित कर सकें। यहां इस कविता में एकलब्य, गुरु की विवशता के बारे में सोचता है, और बार-बार सोचता है। जब कोई धनुर्विद्या में निष्णात धनुर्धारी का पुत्र दूध के लिए बिलबिलाता है, तो उसके सारे सिद्धान्त और सामाजिक निष्ठाएं एक-एक कर धराशायी होने लगती हैं। एकलब्य अंगूठा दान के पहले गुरु की इस स्थिति को कैसे भांपता हुआ ब्यक्त करता है, आप देखें।
इसमें छान्दोग्य उपनिषद में वर्णित एक सत्यविद शिष्य सत्यकाम जाबाल की भी चर्चा है, जिसे ऋषि हरिद्रुमता गौतम ने सत्यभाषण के लिए उसे ब्राह्मण और ब्रह्मचर्य घोषित किया। जाबाली की माता का संबंध कई पुरुषों से था। कौन उसका पिता था, उसकी  माता नहीं जानती थी। इस सत्य को सीधे उसने गौतम ऋषि को बताया। गौतम ने उसकी सत्यनिष्ठा के कारण उसका नाम सत्यकाम रखा और उसे शिष्यवत अपने गुरुकुल में उसकी शिक्षा दी।
इस कविता का पाठ मैने "पेड़ों की छाँव तले रचना पाठ" के तत्वावधान में वैशाली सेन्ट्रल पार्क , दिल्ली एन सी आर मे आयोजित काव्य गोष्ठी में किया था, जिसका यू टयूब वीडियो का लिन्क नीचे दे रहा हूँ। इसमें शुरु में माँ दुर्गा की वन्दना है, उसके बाद इस कविता का पाठ है। ओडियो थोड़ा मद्धम स्वर में है, इसलिये ईयर फोन या हेड फोन लगाकर सुनें तो ज्यादा आनन्द आयेगा:

https://youtu.be/cdEyJlreS0o

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