#myreminiscence#emergenyin1975
आपातकाल का मेरा संस्मरण:
(मार्च - अप्रील 1974)
उन दिनों मैं एम एस सी में मगध विश्वविद्यलय बोधगया में पढ़ाई कर रहा था। जी पी (जय प्रकाश नारायण) के आह्वान पर विद्यार्थी सड़क पर आ गए थे। मैं जे पी के तरुण शांति सेना में शामिल हो गया था। 18 मार्च 1974 को पटना में हुए गोलीकांड के विरोध में 8 अप्रील को जे पी ने फणीश्वर नाथ रेणु, सर्वोदय के सदस्यों और पटना के विद्यार्थियों के साथ मिलकर मुँह पर पट्टी बांधकर पटना में जो मार्च निकाला था, उसमें तरुण शांति सेना के स्वयंसेवक के रुप में मैंने भाग लिया था। इसी के बाद आंदोलन देश के अन्य शहरों और गांवों में तेजी से फैला था।विहार के पूर्व मुख्य मंत्री महामाया प्रसाद जी को हमलोगों ने वजीरगंज बुलाया था। वहाँ एक बड़ी सभा को उन्होंने संबोधित किया था। उससमय उन सभाओं की अध्यक्षता विद्यार्थी ही किया करते थे। उस दिन संयोगवश मुझे ही अध्यक्षता के लिए मौका मिला था।
उसके बाद 12 अप्रील को मखदुमपुर (गया-पटना रेल खण्ड में एक स्टेशन) में पटना से आ रहे विद्यार्थियों के साथ मुँह पर पट्टी बांधकर विरोध प्रदर्शन का कार्यक्रम था। उसी दिन सुबह से विद्यार्थी परिषद और अन्य संगठनों के साथ गया पोस्ट आफिस में रामधुन और धरना का कार्यक्रम था। मैंने सुबह में उसमें भाग लिया और उसके बाद ट्रेन पकड़कर मखदुमपुर चला गया। वहां हमलोग पंक्तिबद्ध होकर जुलूस में घूम ही रहे थे कि खबर आई कि गया में पोस्ट ऑफिस के पास प्रशासन के द्वारा शांतिपूर्ण प्रदर्शनकरियों पर गोली चली है। कई विद्यार्थी और सामान्य लोग मारे गए हैं। कर्फ्यू लगा दिया गया है। रात में पटना से गया की ओर कोई ट्रेन नही आई। मेरे साथ उन दिनों मेरी माँ रहती थी। मैंने माँ से भी नहीं कहा था। रात में नहीं आने से यह आशंका विश्वास में बदल गयी कि मैं गोलीचालन में मारा गया। माँ का रो - रो के बुरा हाल था। मेरे एक ममेरे भाई पास में ही रहते थे। किसी ने कहा कि कुछ लाशें सिविल अस्पताल में आयीं है। अस्पताल ज्यादा दूर नहीं था।
गया कैंटोनमेंट से सेना बुलाकर पूरा शहर उसी को सौंप दिया गया था। देखते ही गोली मारने का आदेश जारी था। लोग कह रहे थे कि ऐसा हाल तो 1947 के दंगों के समय भी नहीं था। मेरे ममेरे भाई गली - गली से होकर सिविल अस्पताल पहुंच गए। वहाँ उन्होंने लाशों के चेहरे पर से चादर हटाकर मेरी पहचान करनी चाही। मैं उनमें नहीं था। इसका मायने मेरी लाश उनमें थी, जिसे कहीं फेंक दिया गया हो।
रात किसी तरह बीती। सुबह की ट्रेन से मैं गया स्टेशन पहुंचा था। बाहर कर्फ्यू होने से सारे लोग स्टेशन में ही जमे हुए थे। बहुत भारी भीड़ थी। मैं रेलवे लाइन के किनारे - किनारे होते हुए अपने डेरा पहुँचा। तब माँ की जान - में -जान आयी। इसी गोलीकांड के बाद जे पी ने बिहार विधान सभा के भंग किये जाने की मांग भी आंदोलन के मुद्दों में जोड़ दिया था।
©ब्रजेन्द्रनाथ
(मार्च - अप्रील 1974)
उन दिनों मैं एम एस सी में मगध विश्वविद्यलय बोधगया में पढ़ाई कर रहा था। जी पी (जय प्रकाश नारायण) के आह्वान पर विद्यार्थी सड़क पर आ गए थे। मैं जे पी के तरुण शांति सेना में शामिल हो गया था। 18 मार्च 1974 को पटना में हुए गोलीकांड के विरोध में 8 अप्रील को जे पी ने फणीश्वर नाथ रेणु, सर्वोदय के सदस्यों और पटना के विद्यार्थियों के साथ मिलकर मुँह पर पट्टी बांधकर पटना में जो मार्च निकाला था, उसमें तरुण शांति सेना के स्वयंसेवक के रुप में मैंने भाग लिया था। इसी के बाद आंदोलन देश के अन्य शहरों और गांवों में तेजी से फैला था।विहार के पूर्व मुख्य मंत्री महामाया प्रसाद जी को हमलोगों ने वजीरगंज बुलाया था। वहाँ एक बड़ी सभा को उन्होंने संबोधित किया था। उससमय उन सभाओं की अध्यक्षता विद्यार्थी ही किया करते थे। उस दिन संयोगवश मुझे ही अध्यक्षता के लिए मौका मिला था।
उसके बाद 12 अप्रील को मखदुमपुर (गया-पटना रेल खण्ड में एक स्टेशन) में पटना से आ रहे विद्यार्थियों के साथ मुँह पर पट्टी बांधकर विरोध प्रदर्शन का कार्यक्रम था। उसी दिन सुबह से विद्यार्थी परिषद और अन्य संगठनों के साथ गया पोस्ट आफिस में रामधुन और धरना का कार्यक्रम था। मैंने सुबह में उसमें भाग लिया और उसके बाद ट्रेन पकड़कर मखदुमपुर चला गया। वहां हमलोग पंक्तिबद्ध होकर जुलूस में घूम ही रहे थे कि खबर आई कि गया में पोस्ट ऑफिस के पास प्रशासन के द्वारा शांतिपूर्ण प्रदर्शनकरियों पर गोली चली है। कई विद्यार्थी और सामान्य लोग मारे गए हैं। कर्फ्यू लगा दिया गया है। रात में पटना से गया की ओर कोई ट्रेन नही आई। मेरे साथ उन दिनों मेरी माँ रहती थी। मैंने माँ से भी नहीं कहा था। रात में नहीं आने से यह आशंका विश्वास में बदल गयी कि मैं गोलीचालन में मारा गया। माँ का रो - रो के बुरा हाल था। मेरे एक ममेरे भाई पास में ही रहते थे। किसी ने कहा कि कुछ लाशें सिविल अस्पताल में आयीं है। अस्पताल ज्यादा दूर नहीं था।
गया कैंटोनमेंट से सेना बुलाकर पूरा शहर उसी को सौंप दिया गया था। देखते ही गोली मारने का आदेश जारी था। लोग कह रहे थे कि ऐसा हाल तो 1947 के दंगों के समय भी नहीं था। मेरे ममेरे भाई गली - गली से होकर सिविल अस्पताल पहुंच गए। वहाँ उन्होंने लाशों के चेहरे पर से चादर हटाकर मेरी पहचान करनी चाही। मैं उनमें नहीं था। इसका मायने मेरी लाश उनमें थी, जिसे कहीं फेंक दिया गया हो।
रात किसी तरह बीती। सुबह की ट्रेन से मैं गया स्टेशन पहुंचा था। बाहर कर्फ्यू होने से सारे लोग स्टेशन में ही जमे हुए थे। बहुत भारी भीड़ थी। मैं रेलवे लाइन के किनारे - किनारे होते हुए अपने डेरा पहुँचा। तब माँ की जान - में -जान आयी। इसी गोलीकांड के बाद जे पी ने बिहार विधान सभा के भंग किये जाने की मांग भी आंदोलन के मुद्दों में जोड़ दिया था।
©ब्रजेन्द्रनाथ
5 comments:
आदरणीय रवींद्र सिंह यादव जी, नमस्ते !
मेरी इस रचना को चर्चा अंक में शामिल करने के लिए हार्दिक आभार !--ब्रजेन्द्र नाथ
चिंतन परक सार्थक लेख।
आ कुसुम कोठारी जी (मन की वीणा ), आपके उत्साहवर्धक उदगार से अभिभूत हूँ ! हार्दिक आभार !--ब्रजेन्द्र नाथ
बहुत कठिन राह से निकले हैं आप। समय कब कैसे आन पड़े कोई नहीं जानता
कठिन समय भी बीत जाता है, अंत भला तो सब भला
आदरणीया कविता रावत जी, मेरे संस्मरण से आप प्रभावित हुईं इसके लिए हार्दिक आभार!वह सचमुच कठिन समय था।--ब्रजेन्द्रनाथ
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