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Friday, July 3, 2020

आत्मनिर्भर (हास्य व्यंग्य)

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आत्मनिर्भर 
(हास्य - व्यंग्य)
मैं समझता हूँ, कि आप दो समयों पर जितना आत्म निर्भर होते है, उतना कभी नहीं होने का मौका मिलता है - एक स्नानालय में और दूसरा सो(शौ) चालय में। इसलिए वहाँ अच्छे विचार आते है। कहा जाता है कि दुनिया के कई महानतम अविष्कारों और साहित्य सृजन का विचार कजरारे बादलों से घिरे घनमण्डल में बिजली की कौंध की तरह वहीं चमका था। अच्छा हुआ आर्कमिडीज को अपना समाधान जलाशय में मिला था और वहीं से वह बस्त्रविहीन दौड़ पड़ा था। अगर सोचालय में समाधान मिलता, तो पता नहीं क्या होता?
यह सब देखकर और समझकर इस कोरोना काल में कई लोग वहाँ ज्यादा समय बिताने लग गए। शायद कोई विचार सूत्र मिल जाय, जिससे कोरोना पर विजय प्राप्त करने की दिशा में आगे बढ़ा जाय।
साथ ही दीपक जी जैसे हास्य - व्यंग्य के हस्ताक्षरों ने स्वयं को गृह कार्य में भी व्यस्त रहने की चर्चा इतनी व्यापकता और रचनात्मकता के साथ अपनी रचनाओं में किया, कि हमलोग जैसे सेवा निवृत्त कलमकारों को भी आत्मनिर्भर बनाने के लिए लोग पीछे ही पड़ गए। मेरे पड़ोस वाले सत्तर वर्षीय चचा तो एक दिन झाड़ू लगाने को झाड़ू लिए झुके ही थे कि झुके ही रह गए। अब कोरोना काल के बाद ही लगता है सीधे होंगें।
हमलोग आजादी के बाद सत्तर से अधिक वर्षों से परनिर्भरता के ही प्रावधानों पर चलते रहे। पहले पी एल 480 के तहत यहाँ गेहूं आता था। उससे मुक्ति का प्रयास हरित क्रांति द्वारा हुआ। इसके बाद हमने वर्ल्ड बैंक आदि से ऋण लेकर बड़े-बड़े कल कारखाने खड़े किए। ऋण लेकर घी पीने की आदत पड़ गयी। अपनी पूंजी जो भी इकठ्ठी हुई उसे ऋण की अदायगी ही होती रही। जब एकाएक मार्केट इकॉनोमी से जुड़े तब अपनी औकात का पता चल गया। अर्थ तंत्र को पटरी से गिराने में घोटालों ने अपना योगदान दिया।
अब थोड़ा संभल ही पाए थे कि कोरोना ने विश्व स्तर पर आक्रमण कर दिया है। प्रधानमंत्री ने इसे आत्मनिर्भर बनने के लिए एक मौके में बदलने का आह्वान किया है। हमलोग बदलेंगें कैसे? हमलोग तो अबतक सस्ते खरीदने के इतने आदि हो चुके हैं कि यह भी नहीं देखते कि समान हमारा बनाया हुआ है या दुश्मन के द्वारा। हमलोग दूसरों के लिए हाई टेक क्लर्की करते - करते व्हाट्सअप्पीये, फेसबुकिये, गूगलिये, विकिपीडिये, इंस्टाग्रामीये बन चुके हैं कि न अपना कोई अप्प बना सके और न अपना कोई प्रोडक्ट।
यहाँ से आत्मनिर्भरता की यात्रा है तो अगम पर पूरी करनी भी है अहम।
चलते हैं चुनौतियों को हथियार बनाते हैं,
आत्मनिर्भता का संस्कार जगाते हैं।

© ब्रजेंद्रनाथ मिश्र

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