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Thursday, October 18, 2018

उजाला दे दूंगी (लघु कथा)

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आज विजयादशमी है। बुराई पर अच्छाई के विजय का उत्सव आज मनाते हैं और यह संकल्प लेते हैं कि बुराईयों के
महिषासुर को सर उठाने के पहले ही खत्म कर देंगें। इसमें हम अपनी मानवीय संवेदनाओं को अक्षुण्ण रखेंगें।
मेरी लिखी एक लघु कथा, जो विशेष इसी अवसर के लिये लिखी गयी है, आप पढ़ें और बतायें कैसी लगी?

"माँ, आज साहब के बंगले में इतनी भीड क्यों है?" रोहित बाबु के बंगले के आउट हाउस में अपनी माँ के साथ रहने वाली छोटी बच्ची रानी ने अपनी माँ अहिल्या से पूछा था।
अहिल्या जानती थी कि साहब के यहां नवरात्र में दुर्गा जी की पूजा होती है। आज उसी की पूर्णाहुति पर कुंवारी कन्याओं को भोजन कराया जाता है। उसके बाद दक्षिणा के रूप में उपहार भी दिया जता है।
"वहां माँ दुर्गा जी की पूजा हो रही है।"
"उससे क्या होता है?"
"उससे दुर्गा जी सद्बुद्धि देती हैं। और सद्बुद्धि से जीवन में उजाला आ जाता है। उसके प्रकाश में जीवन जीने से कोई भय नहीं होता है।"
"माँ, हम भी दुर्गा जी की पूजा क्यों नहीं करते?"
"करती हूं न। जहां दुर्गा जी की पूजा होती है, वहां की सफाई तो मैं ही रोज करती हूं। हमारी यही पूजा है।"
"तो फिर कन्या को बुलाकर खिला भी देंगे और दक्षिणा भी देंगें।"
"मैं तो रोज खिलाती हुँ कन्या को।"
"मैने तो किसी को आते हुये नहीं देखा।"
"तुम जो मेरी कन्या हो।"
"तुम दक्षिणा क्या दोगी?"
"मैं दुर्गा जी के पूजा स्थल की सफाई करते हुये पूजा करती रहती हुँ, वहां से ... "
"हां, तो वहां से दक्षिणा लायेगी क्या?
"हां, वहीं से सद्बुद्धि का उजाला लेकर तुम्हें उसमें से थोड़ा सा उजाला दे दूंगी।"
"तुम्हारी यही बात मेरी समझ में नही आती।"
अहिल्या अपनी रानी को गले लगा लेती है।

1 comment:

Lalita Mishra said...

अत्यंत संवेदनात्मक कहानी! साधुवाद!

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