#BnmRachnaWorld
#poemonstruggle
विषय: चित्र आधारित सृजन
चित्र: सड़क के मोड़ पर पत्रविहीन पेड़ और क्षितिज से झांकती दो आंखें
छाँव के सुखभोग कहाँ
धूप से छाले सहे पर,
छाँव के सुखभोग कहाँ?
कल्पनाओं के क्षितिज पर,
जो सपन मैं बुन सका था।
नयन निलय के नर्तन में
हरीतिमा को चुन सका था।
वे सपन सब खो गए,
प्रकृति के भीषण प्रलय में।
विमूढ़ सा देखा किया,
विस्फोटों के वह्नि - वलय मे।
पथ पर सूर्य - किरणें,
तपिश - सी दे रही,
पाँव के छालों को
आराम का संयोग कहाँ?
धूप से छाले सहे पर
छाँव के सुखभोग कहाँ?
वेदना के शीर्ष पर
सब भाव पिघलते जा रहे।
आशाओं की आस में,
सब अर्थ धुलते जा रहे।
पोर - पोर पीर से
भर उठा है, क्या कहूं?
दर्द के द्वार पर,
उदगार रीते जा रहे।
छीजती इस जिंदगी को,
हँस - हँस कर जी सकूँ,
कोई कोई कर सके तो करे,
मेरे बस में ये प्रयोग कहाँ?
धूप से छाले सहे पर
छाँव के सुखभोग कहाँ?
दलदल भरी कछार में,
दरार होती नहीं।
बह गए वृक्षों पर,
कभी बहार होती नहीं।
चिड़ियों की चहचहाहट
अब यादों में बसती है।
जड़ से जो उखड़ गए,
उनमें संवार होती नहीं।
जो खो चुके सबकुछ
इस सफर में उस सफर में।
उन्हें और कुछ भी
खोने का वियोग कहाँ?
धूप से छाले सहे पर
छाँव के सुखभोग कहाँ?
(वह्नि-आग)
©ब्रजेंद्रनाथ मिश्र
#poemonstruggle
विषय: चित्र आधारित सृजन
चित्र: सड़क के मोड़ पर पत्रविहीन पेड़ और क्षितिज से झांकती दो आंखें
छाँव के सुखभोग कहाँ
धूप से छाले सहे पर,
छाँव के सुखभोग कहाँ?
कल्पनाओं के क्षितिज पर,
जो सपन मैं बुन सका था।
नयन निलय के नर्तन में
हरीतिमा को चुन सका था।
वे सपन सब खो गए,
प्रकृति के भीषण प्रलय में।
विमूढ़ सा देखा किया,
विस्फोटों के वह्नि - वलय मे।
पथ पर सूर्य - किरणें,
तपिश - सी दे रही,
पाँव के छालों को
आराम का संयोग कहाँ?
धूप से छाले सहे पर
छाँव के सुखभोग कहाँ?
वेदना के शीर्ष पर
सब भाव पिघलते जा रहे।
आशाओं की आस में,
सब अर्थ धुलते जा रहे।
पोर - पोर पीर से
भर उठा है, क्या कहूं?
दर्द के द्वार पर,
उदगार रीते जा रहे।
छीजती इस जिंदगी को,
हँस - हँस कर जी सकूँ,
कोई कोई कर सके तो करे,
मेरे बस में ये प्रयोग कहाँ?
धूप से छाले सहे पर
छाँव के सुखभोग कहाँ?
दलदल भरी कछार में,
दरार होती नहीं।
बह गए वृक्षों पर,
कभी बहार होती नहीं।
चिड़ियों की चहचहाहट
अब यादों में बसती है।
जड़ से जो उखड़ गए,
उनमें संवार होती नहीं।
जो खो चुके सबकुछ
इस सफर में उस सफर में।
उन्हें और कुछ भी
खोने का वियोग कहाँ?
धूप से छाले सहे पर
छाँव के सुखभोग कहाँ?
(वह्नि-आग)
©ब्रजेंद्रनाथ मिश्र
No comments:
Post a Comment