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समर्पित
वो सर्द साँझ थी जब पुष्प को अचानक सी - बीच पर अंशिका जैसी ही आकृति दिखी थी। वह एक अदृश्य आकर्षण से बँधा हुआ उस ओर बढ़ गया था। उसे अंशिका के साथ कॉलेज में बिताये हुए दिन रह रह कर याद आ रहे थे। वह भौतिकी के पीजी का छात्र था और अंशि हाँ इसी नाम से उसे पुकारा करता था, इकोनॉमिक्स की।
अंशि की इंग्लिश अच्छी थी। वह धाराप्रवाह किसी भी विषय पर बोल सकती थी। कॉलेज में रोटरी क्लब द्वारा डिबेट कम्पटीशन का आयोजन किया गया था। अंशि के रहते उसका डिबेट में जीत पाना असंभव था। उसे अच्छी तरह याद है कि अंशि ने कैसे डिबेट में उसे जीतने के लिए अंतिम दिन, ठीक डिबेट शुरू होने के पहले अपना नाम वापस ले लिया था। इसपर दोनों के बीच खूब झगड़ा हुआ था, और उसके बाद खूब प्यार।
"अंशि, सुनो तो..."
ऐसे कौन परिचित नाम से पुकार सकता था। अंशिका ने मुड़कर देखा था।
"पुष्प, तुम यहां कैसे, मुंबई में।"
"क्यों? मुंबई सिर्फ तुम्हारी है क्या?"
"घूमने आये हो क्या? अकेले हो?" अंशि का मतलब पुष्प की पत्नी, बच्चों से था।
"हां, अकेला तो अकेले ही होगा न।"
"तुम्हारी पहेलियाँ बुझाने की आदत गई नहीं।"
"तुम्हारे, श्रीमानजी, कहाँ है, वो?"
अंशि का तो मन हुआ कि वह कह दे, सामने खड़े हो और पूछ रहे हो कहाँ हैं वे?
"मैं यहीं इंडियन रेवेन्यू सर्विस में नौकरी कर रही हूँ।"
"तो, इनकम टैक्स में हो? तब तो डरकर रहना होगा। कहीं रेड न करवा दो।"
"तुम पर तो रेड करने में मज़ा ही आएगा। तुम कहाँ हो?"
"तुम्हारी शरारत गई नहीं। मैं यही भाभा एटॉमिक रिसर्च सेन्टर में छोटा - सा वैज्ञानिक हूँ।"
"तब तो एटम बम लगाकर उड़ा दोगे।"
"काश, तुझे तुझसे उड़ा पाता!" पुष्प ने हंसकर कहा था.
"तो मैं चलूँ, मुझे जाना होगा।" अंशि ने अपनी विवशता जताने की मुद्रा में कहा।
"........" पुष्प चुप ही रहा।
अंशिका चल दी। पुष्प जड़वत खड़ा रहा। वह उस ठूँठ की तरह खडा था जिसके सारे पत्ते झड़ चुके थे, जिसके पास देने को कुछ नहीं था, न फल, न पत्ते, न टहनियाँ।
अंशिका ने कुछ दूर जाकर मुड़कर देखा। पुष्प वैसे ही खड़ा था। देखकर वह मुड़ गई थी। उसने पीछे - से पुष्प से लिपटते हुए पूछा था।
"मुझे रोका क्यों नहीं जाने से?"
"मैं तुम्हें चाहता हूँ अंशि। तुझे कैसे रोकता?"
"बुध्धू, जिसे चाहते है, उसे बलपूर्वक रोक लेते है अपने पास।"
अंशि, जिसे चाहते हैं उसे कैसे रोक सकते हैं, प्यार में अधिकार नहीं जताया जाता। ये तो निरा स्वार्थ हुआ न।
ये तो पोसेसिव होना हुआ। मैंने तो तुझे खुद को समर्पित किया है अंशि, तुझे बलात रोक कैसे सकता हूँ?" पुष्प ने अंशि के सरक गए समुद्र के जल में भींगते दुपट्टे की छोर को उठाकर उसके वक्षस्थल पर सजाते हुए कहा था।
"तुम बिलकुल नहीं बदले..." कहकर अंशिका ने उसे और भी पास खींचकर भींच लिया था अपनी बाहों में।
©ब्रजेंद्रनाथ
8 comments:
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (02-09-2020) को "श्राद्ध पक्ष में कीजिए, विधि-विधान से काज" (चर्चा अंक 3812) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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आदरणीय डॉ रूपचंद शास्त्री "मयंक" सर, आपने कल 02 सितंबर, दिन बुधवार के चर्चा अंक के लिए मेरी लिखी इस लघुकथा के चयन किया है। इसके लिए हृदय तल से आभार व्यक्त करता हूँ। सादर! --ब्रजेन्द्रनाथ
बहुत सुन्दर कहानी।
बहुत खूबसूरती से लिखी गई लघुकथा अपना वृहद संदेश दे रही है ब्रजेन्द्रनाथ जी ...
आदरणीया अलकनन्दा सिंह जी, आपकी सराहना के शब्द मेरे सृजन की ताकत हैं। आपका हृदय तल से आभार!--ब्रजेन्द्रनाथ
आदरणीया सुधा देवरानी जी, आपकी सकारात्मक टिप्पणी के लिए हृदय तल से आभार!--ब्रजेन्द्रनाथ
सुंदर कथा।
सुखद अंत।
आदरणीया कुसुम कोठारी जी, आपके सराहना के शब्दों से अभिभूत हूँ। हॄदय तल से आभार!--ब्रजेन्द्रनाथ
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