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शंकराचार्य मन्दिर, श्रीनगर
शंकराचार्य मन्दिर, जिसे जेष्ठेस्वरा मन्दिर या बुद्धों द्वारा पास पहाड़ मन्दिर भी कहा जाता है, जबर्वान पहाडों के विस्तार में शंकराचार्य पहाड़ी पर स्थित पवित्र शिव मन्दिर है। यह मन्दिर शहर के तल से करीब 1000 फीट पर स्थित है। वहाँ से सर्पिल बहती झेलम नदी के दोनों किनारे पर फैलाव लिये शहर के विहन्गम दृश्य को देखा जा सकता है। यह मन्दिर 200 साल इस पूर्व में बना था। उसके वर्तमान स्वरुप में 9 वीं शताब्दी में आदि शकराचार्य के आगमन के बाद पुनर्निमित एवं स्थापित किया गया। यह बौद्धों द्वारा भी पवित्र स्थल के रूप में पूज्य है। पारसी और यहूदी इसे बाग-ए-सुलेमान या राज सूलेमान का बाग भी कहते हैं।
जानकार पण्डित आनन्द कौल (1924) के अनुसार यह मन्दिर मूल रूप में हिन्दु राजा संदीपन, जिसने कश्मीर में 2629 B C से 2564 BC तक राज्य किया था, के द्वारा बनाया गया था। इसके बाद इस मन्दिर की मरम्मत नृप गोपादित्य (426-365 BC) और नृप ललितदित्य (697-734 AD ) के द्वारा की गयी। विश्व विजय पर निकले सिकन्दर (यूनान) ने भी इसे किसी भी तरह से नुकसान पहुंचाने की जुर्रत नहीं की।
जैनुल-आबिदीन ने भूकम्प के कारण जर्जर हो गये इसकी छत की मरम्मत करवायी थी। सन् 1841-46 में सिख राजा रणजीत सिंह के शासन काल में गवर्नर शेख गुलाम मोइयुद्दीन ने इसकी छत की पुनः मरम्मत करवायी थी।
इस पहाड़ी का जिक्र संस्कृत विद्वान और कवि कल्हण जिन्होने प्रसिद्ध काब्य "राजतरन्गिणी" की रचना की थी, के ग्रन्थों में मिलता है।
(सन्दर्भ: राजतरंगिणी, कल्हण द्वारा रचित एक संस्कृत ग्रन्थ है। 'राजतरंगिणी' का शाब्दिक अर्थ है - राजाओं की नदी, जिसका भावार्थ है - 'राजाओं का इतिहास या समय-प्रवाह'। यह कविता के रूप में है। इसमें कश्मीरका इतिहास वर्णित है जो महाभारत काल से आरम्भ होता है। इसका रचना काल सन ११४७ से ११४९ तक बताया जाता है। भारतीय इतिहास-लेखन में कल्हण की राजतरंगिणी पहली प्रामाणिक पुस्तक मानी जाती है। इस पुस्तक के अनुसार कश्मीर का नाम "कश्यपमेरु" था जो ब्रह्मा के पुत्र ऋषि मरीचि के पुत्र थे।
राजतरंगिणी के प्रथम तरंग में बताया गया है कि सबसे पहले कश्मीर में पांडवों के सबसे छोटे भाई सहदेव ने राज्य की स्थापना की थी और उस समय कश्मीर में केवल वैदिक धर्म ही प्रचलित था। फिर सन 273 ईसा पूर्व कश्मीर में बौद्ध धर्म का आगमन हुआ।
१९वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में औरेल स्टीन (Aurel Stein) ने पण्डित गोविन्द कौल के सहयोग से राजतरंगिणी का अंग्रेजी अनुवाद कराया।
राजतरंगिणी एक निष्पक्ष और निर्भय ऐतिहासिक कृति है। स्वयं कल्हण ने राजतरंगिणी में कहा है कि एक सच्चे इतिहास लेखक की वाणी को न्यायाधीश के समान राग-द्वेष-विनिर्मुक्त होना चाहिए, तभी उसकी प्रशंसा हो सकती है-
श्लाध्यः स एव गुणवान् रागद्वेषबहिष्कृता।भूतार्थकथने यस्य स्थेयस्येव सरस्वती॥ (राजतरंगिणी, १/७))
कल्हण ने एक जगह लिखा है कि राजा गोपादित्य ने आर्यावर्त से आनेवाले वाले ब्राहमणों को पहाड़ी की तलहटी में बसने के लिये जमीन दी थी। इस भूमि दान को "गोपाग्रहार" कहा गया। इस क्षेत्र को अभी भी 'गुपाकर' नाम से जाना कहा जाता है।
कहा जाता है की एक बार कुछ ब्राह्मणों ने अज्ञानतावश या गलती से लहसुन खा लिया था। इसलिये उन्हें उस गाँव से अलग दूसरे गाँव में बसाया गया, जिसका नाम भुक्षीरवाटिका (आज का बुचवोर) पड़ा। कल्हण ने यह भी लिखा है कि उस पहाड़ की चोटी पर जेष्ठेस्वरा (शिव जेष्ठरुद्र) के श्राईन के रूप में नृप गोपादित्य ने ही मन्दिर का निर्माण करवाया था।
क्रमशः
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शंकराचार्य मन्दिर, श्रीनगर
शंकराचार्य मन्दिर, जिसे जेष्ठेस्वरा मन्दिर या बुद्धों द्वारा पास पहाड़ मन्दिर भी कहा जाता है, जबर्वान पहाडों के विस्तार में शंकराचार्य पहाड़ी पर स्थित पवित्र शिव मन्दिर है। यह मन्दिर शहर के तल से करीब 1000 फीट पर स्थित है। वहाँ से सर्पिल बहती झेलम नदी के दोनों किनारे पर फैलाव लिये शहर के विहन्गम दृश्य को देखा जा सकता है। यह मन्दिर 200 साल इस पूर्व में बना था। उसके वर्तमान स्वरुप में 9 वीं शताब्दी में आदि शकराचार्य के आगमन के बाद पुनर्निमित एवं स्थापित किया गया। यह बौद्धों द्वारा भी पवित्र स्थल के रूप में पूज्य है। पारसी और यहूदी इसे बाग-ए-सुलेमान या राज सूलेमान का बाग भी कहते हैं।
जानकार पण्डित आनन्द कौल (1924) के अनुसार यह मन्दिर मूल रूप में हिन्दु राजा संदीपन, जिसने कश्मीर में 2629 B C से 2564 BC तक राज्य किया था, के द्वारा बनाया गया था। इसके बाद इस मन्दिर की मरम्मत नृप गोपादित्य (426-365 BC) और नृप ललितदित्य (697-734 AD ) के द्वारा की गयी। विश्व विजय पर निकले सिकन्दर (यूनान) ने भी इसे किसी भी तरह से नुकसान पहुंचाने की जुर्रत नहीं की।
जैनुल-आबिदीन ने भूकम्प के कारण जर्जर हो गये इसकी छत की मरम्मत करवायी थी। सन् 1841-46 में सिख राजा रणजीत सिंह के शासन काल में गवर्नर शेख गुलाम मोइयुद्दीन ने इसकी छत की पुनः मरम्मत करवायी थी।
इस पहाड़ी का जिक्र संस्कृत विद्वान और कवि कल्हण जिन्होने प्रसिद्ध काब्य "राजतरन्गिणी" की रचना की थी, के ग्रन्थों में मिलता है।
(सन्दर्भ: राजतरंगिणी, कल्हण द्वारा रचित एक संस्कृत ग्रन्थ है। 'राजतरंगिणी' का शाब्दिक अर्थ है - राजाओं की नदी, जिसका भावार्थ है - 'राजाओं का इतिहास या समय-प्रवाह'। यह कविता के रूप में है। इसमें कश्मीरका इतिहास वर्णित है जो महाभारत काल से आरम्भ होता है। इसका रचना काल सन ११४७ से ११४९ तक बताया जाता है। भारतीय इतिहास-लेखन में कल्हण की राजतरंगिणी पहली प्रामाणिक पुस्तक मानी जाती है। इस पुस्तक के अनुसार कश्मीर का नाम "कश्यपमेरु" था जो ब्रह्मा के पुत्र ऋषि मरीचि के पुत्र थे।
राजतरंगिणी के प्रथम तरंग में बताया गया है कि सबसे पहले कश्मीर में पांडवों के सबसे छोटे भाई सहदेव ने राज्य की स्थापना की थी और उस समय कश्मीर में केवल वैदिक धर्म ही प्रचलित था। फिर सन 273 ईसा पूर्व कश्मीर में बौद्ध धर्म का आगमन हुआ।
१९वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में औरेल स्टीन (Aurel Stein) ने पण्डित गोविन्द कौल के सहयोग से राजतरंगिणी का अंग्रेजी अनुवाद कराया।
राजतरंगिणी एक निष्पक्ष और निर्भय ऐतिहासिक कृति है। स्वयं कल्हण ने राजतरंगिणी में कहा है कि एक सच्चे इतिहास लेखक की वाणी को न्यायाधीश के समान राग-द्वेष-विनिर्मुक्त होना चाहिए, तभी उसकी प्रशंसा हो सकती है-
श्लाध्यः स एव गुणवान् रागद्वेषबहिष्कृता।भूतार्थकथने यस्य स्थेयस्येव सरस्वती॥ (राजतरंगिणी, १/७))
कल्हण ने एक जगह लिखा है कि राजा गोपादित्य ने आर्यावर्त से आनेवाले वाले ब्राहमणों को पहाड़ी की तलहटी में बसने के लिये जमीन दी थी। इस भूमि दान को "गोपाग्रहार" कहा गया। इस क्षेत्र को अभी भी 'गुपाकर' नाम से जाना कहा जाता है।
कहा जाता है की एक बार कुछ ब्राह्मणों ने अज्ञानतावश या गलती से लहसुन खा लिया था। इसलिये उन्हें उस गाँव से अलग दूसरे गाँव में बसाया गया, जिसका नाम भुक्षीरवाटिका (आज का बुचवोर) पड़ा। कल्हण ने यह भी लिखा है कि उस पहाड़ की चोटी पर जेष्ठेस्वरा (शिव जेष्ठरुद्र) के श्राईन के रूप में नृप गोपादित्य ने ही मन्दिर का निर्माण करवाया था।
क्रमशः
1 comment:
शंकराचार्य के इस पवित्र मंदिर का सटीक और सार्थक वर्णन के लिए साधुवाद!
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