#environmentpoem
#savewater
जल से जीवन परिपूरित कर
(जल की यात्रा पर आधारित)
उष्ण ताप वाष्पित होता है,
जलवाष्प बादल बनता है।
अल्हड शोख जवानी जैसी,
झूमता, दौड़ता छा जाता है।
पर्वतों पर आच्छादित हो
नाचता गाता, शोर मचाता।
तरु - शाखों को नहलाता,
शिला छोड़, है राह बनाता।
उतरता है नीचे मैदानों में,
जीवन - जल बन जाता है
अमृत - पावन - संचित घट,
उड़ेलता, सरस बनाता है।
जल यौवन - राग सुनाता,
गाता, मृदंग, बजाता है।
शहनाई की टेर सुनाता,
यमुना- तट पर लहराता है।
कदम्ब की छाओं में सुस्ताता,
कृष्ण की वंशी सुनने आता।
दुकूलों को आप्लावित करता,
कृषक - कार्य में हमें लगाता।
धरा अन्न से परिपूर्ण हो,
धानी हो माता का आँचल।
मानव - जीवन पोषित हो,
पर्व मने जीवन में अविरल।
हृषिकेश में गंगा - जल बन,
हर की पौड़ी को है धोता,
प्रयाग - राज में बनी त्रिवेणी,
बनारस के घाटों पर सोता।
आगे बढ़ता पाटलिपुत्र हो,
सुल्तानगंज में उत्तरायण ।
बढ़ता जाता, मस्त चाल में,
सगर-पुत्रों का उद्धारक बन।
यह जल क्यों दूषित हो चला,
मानव तूने क्या कर डाला?
अमृत का घट तेरे पास था,
तूने उसमें विष भर डाला?
अपना कचरा न सका संभाल,
डाल दिया इस पावन तट पर।
सूखती जा रही धार अमृतमयी,
कंकड़ - कीचड़ घाटों में भर ।
सूख गयी जो धार नदी की,
पसर गयी कचरे में फँस कर,
कैसे विहंग की चोंच चखेगी?
तृषित रहेगा हर उर अंतर।
(जल की यात्रा पर आधारित)
उष्ण ताप वाष्पित होता है,
जलवाष्प बादल बनता है।
अल्हड शोख जवानी जैसी,
झूमता, दौड़ता छा जाता है।
पर्वतों पर आच्छादित हो
नाचता गाता, शोर मचाता।
तरु - शाखों को नहलाता,
शिला छोड़, है राह बनाता।
उतरता है नीचे मैदानों में,
जीवन - जल बन जाता है
अमृत - पावन - संचित घट,
उड़ेलता, सरस बनाता है।
जल यौवन - राग सुनाता,
गाता, मृदंग, बजाता है।
शहनाई की टेर सुनाता,
यमुना- तट पर लहराता है।
कदम्ब की छाओं में सुस्ताता,
कृष्ण की वंशी सुनने आता।
दुकूलों को आप्लावित करता,
कृषक - कार्य में हमें लगाता।
धरा अन्न से परिपूर्ण हो,
धानी हो माता का आँचल।
मानव - जीवन पोषित हो,
पर्व मने जीवन में अविरल।
हृषिकेश में गंगा - जल बन,
हर की पौड़ी को है धोता,
प्रयाग - राज में बनी त्रिवेणी,
बनारस के घाटों पर सोता।
आगे बढ़ता पाटलिपुत्र हो,
सुल्तानगंज में उत्तरायण ।
बढ़ता जाता, मस्त चाल में,
सगर-पुत्रों का उद्धारक बन।
यह जल क्यों दूषित हो चला,
मानव तूने क्या कर डाला?
अमृत का घट तेरे पास था,
तूने उसमें विष भर डाला?
अपना कचरा न सका संभाल,
डाल दिया इस पावन तट पर।
सूखती जा रही धार अमृतमयी,
कंकड़ - कीचड़ घाटों में भर ।
सूख गयी जो धार नदी की,
पसर गयी कचरे में फँस कर,
कैसे विहंग की चोंच चखेगी?
तृषित रहेगा हर उर अंतर।
धार बूँद बन पसर जाएंगी
क्या चोंच में समां पाएंगी ?
क्या प्यास बुझा पाएंगी ?
जीवन सरस बना पाएंगी?
क्या अम्बु-अस्तित्व धरा पर,
अतीत के पन्नो में ही दिखेगा?
यह पातक मानव तू सहेगा,
तुझ पर भीषण वज्र गिरेगा।
अब भी बचा ले इस अमृत को,
अग्रिम जीवन को सिंचित कर।
पीयूष आपूरित अभ्यंतर हो,
जल से जीवन परिपूरित कर।
जल से जीवन परिपूरित कर।
©ब्रजेंद्रनाथ मिश्र
नोट: तस्वीर मेरे बड़े लडकें शुभेंदु (सर एच एन रिलायंस फाउंडेशन अस्पताल, मुम्बई में कार्यरत) द्वारा बनायी गयी है।
3 comments:
अमृत का घट तेरे पास था,
तूने उसमें विष भर डाला?
कटु सत्य है आदरणीय 👌👌
इंसान को अपने स्वार्थ के आगे कुछ नहीं दिखता..
प्रकृति के साथ खिलवाड़ कर उसने स्वयं ही अपने पाँवों पर कुल्हाड़ी चलाई है. उसका परिणाम आज हम सबके सामने है..
ओ चित्रकार... पढ़ने के लिए आप आमंत्रित हैं 🙏🙏
अमृत का घट तेरे पास था,
तूने उसमें विष भर डाला?
कटु सत्य है आदरणीय ����
इंसान को अपने स्वार्थ के आगे कुछ नहीं दिखता..
प्रकृति के साथ खिलवाड़ कर उसने स्वयं ही अपने पाँवों पर कुल्हाड़ी चलाई है. उसका परिणाम आज हम सबके सामने है..
ओ चित्रकार... पढ़ने के लिए आप आमंत्रित हैं ����
आदरणीया सुधा जी, आपकी उत्साहवर्द्धक टिप्पणी से सृजन की प्रेरणा मिलती है। मैं आपका ब्लॉग अवश्य विजिट करूँगा। हृदय तल से आभार!--ब्रजेंद्रनाथ
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