इरादों को जगाता हूँ
जिंदगी की पलकों पर सपने सजाता हूँ।
यादों को सुलाकर, इरादों को जगाता हूँ।
उन सायों के पीछे, छोड़ आया था जिन्हें,
उनके हाथों की छुवन, हंसकर मिटाता हूँ|
वक्त तो अनसुलझी रेशों का घेरा है यहाँ,
उन्हीं रेशों से जिंदगी की राहें सजाता हूँ |
एक पेड़ जिसपर पखेरू सो रहे थे रात भर,
उस छाँव में हर दोपहर मैं भी सो आता हूँ।
सीधे सच कहने से मैंने किनारा कर लिया,
अब झूठ से संवादों का सिलसिला चलाता हूँ|
शाहंशाह का है महल दरिया के किनारे पर,
वहाँ गुम झोपड़ियों की फरियादे सुनाता हूँ।
एक नदी जो बहती जा रही छल - छल कर,
उसे समन्दर तक पहुँचने की कहानी बताता हूँ।
---ब्रजेन्द्र नाथ मिश्र
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