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Monday, May 18, 2020

कहाँ चली ओ कली? (कविता)

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कहाँ चली ओ कली?


वृंतों पर अरुण प्रभा जब थी बिहँस रही,
प्रात में, प्रभात में, जब निशा सिमट रही।

ओस-कण ढुलक रहे, विभावरी थी बीतती,
हवा थी मंद-मंद-सी, पराग-कण समेटती।

तब एक डाल पर, उषा-किरण के भाल पर,
झाड़ियों में सर उठाये, पत्तियों के थाल पर।

मलय सुगंध घोलती, हवा जब चली,
नेत्र-पट खोलती, निकल पड़ी इक कली।

देखती उजास से भरी मही,
हरी दूब दूर तक पसर रही।
तरु झूमते, कूक गूँज रही,
प्रकृति रस घोलती संवर रही।

साफ जल में मछलियाँ थी तैरती उमंग में,
सरोवर तल पर जलराशि उठ रही तरंग में।

हिमाच्छादित शिखरों से गिर रही धवल-धार,
सरिता अपने तटों बीच संवारती कण तुषार।

जब अरुण प्रभा की चादर में था लिपटा उपवन,
हवा लेके चादर उड़ चली विस्तीर्ण था नीला गगन।

पुष्प - लता थी पूछ रही, कहाँ चली ओ कली?
बावरी सी, पराग कण उछालती, कैसी है बेकली?

इस सुंदर प्रभात में, चलो मेरे साथ में, प्यारी सखी,
जग को निहारने, श्रृंगार-रस पसारने, मैं बढ़ चली।

तू नहीं जानती , अग जग को नहीं पहचानती,
भर के बहु पाश में, मसल न दे तुन्हें प्यारी कली।

कली सहम सहम गयी, चल पड़ी वापस उपवन में,
जहां पुष्प लता थी खड़ी उदास, जल भरे थे नैनन में।

मन में थी बेचैनी, नैनों में छाई विवशता की रेखाएं,
कली लिपट गयी, नयन निलय में बह चली जल धारायें।

मैं तेरे साथ में, झाड़ियों के बीच बिछे पत्तों की थाल में,
यहीं खेलूं, खिलूँ, तेरे अंक में सुरक्षित रहूँ हर हाल में।
तेरे अंक में सुरक्षित हूँ हर हाल में...
©ब्रजेंद्रनाथ

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