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Friday, May 1, 2020

श्रम देवता बन धरती को जगाता हूँ (कविता)

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श्रम - देवता बन धरती को जगाता हूँ


बाजुओं का माँस औ' गठन गलाता हूँ,
श्रम-देवता बन, धरती को जगाता हूँ।

पर्वत के मस्तक पर फावड़ा चलाता हूँ,
चट्टानों को तोड़कर अपनी राह बनाता हूँ।

हाथ काले, उंगलियाँ खुरदरी बनाता हूँ,
उनपर लाल फफोलों के मोती उगाता हूँ।

रक्त वाष्पित कर पसीना जब गिराता हूँ,
वहीं उत्तुंग - शिखर हिमालय उठाता हूँ।।

वहाँ पर गगन को जो महल चूमता है,
उसकी कंक्रीट में श्रम- बिंदु मिलाता हूँ।

चीर हल से, धरा को उर्वर बनाता हूँ,
देता अन्नदान, मैं किसान कहलाता हूँ।

जो भी मिले, उससे संतुष्ट हो जाता हूँ,
कर्मयोगी बनकर मैं किस्मत जगाता हूँ।

बाजुओं का माँस औ' गठन गलाता हूँ,
श्रम-देवता बन, धरती को जगाता हूँ।


©ब्रजेंद्रनाथ

1 comment:

akhilesh shukla said...

सादर नमस्कार ,
जो भी मिले, उससे संतुष्ट हो जाता हूँ,
कर्मयोगी बनकर मैं किस्मत जगाता हूँ।
बहुत ही सुंदर रचना ।

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