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Monday, May 11, 2020

सूरज जा रहा अपने गाँव (कविता) #poemonnature

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सूरज जा रहा अपने गाँव

सुबह हुयी, अम्बर में जैसे
छूटी हो इक आतिशबाजी।
किरणों की बौछार हो  रही
धरा नहाई,  हुयी वह ताजी।

पीला हुआ रंग क्षितिज का
पूर्व लाल , जलता अलाव।
सूरज जा रहा अपने गाँव।

ज्यों - ज्यों सूरज चढ़ता ऊपर
बचपन बीता आयी जवानी।
किरणों में तपिश बढ़ रही
यौवन में ज्यों आई रवानी।

सूखी  धरा पर चले अगर ,
सिर हो गरम, जलेंगे पाँव।
सूरज जा रहा अपने गाँव।

भास्कर जैसे एक जिश्म है
धूप बनी है उसकी छाया।
परछाईं कभी अलग नहीं है
स्थिति में है जब तक काया।

आत्मन मिलता परमात्मन में
तब आ जाता है ठहराव।
सूरज जा रहा अपने गाँव।

दोपहर बाद दिनकर भी
चलता पश्चिम मद्धम - मद्धम।
जब ढंकता बादल सूरज को
गरम धूप हो जाती नरम।

इतना चलकर, दौड़ भागकर
ढूढ़ रहा अपना पड़ाव ।
सूरज जा रहा अपने गाँव।

प्रेमातुर हो वाट जोह रही
उनकी याद में अटकी आस।
संध्या रानी कुहनी टिकाये
मिलने को है खड़ी उदास।

आया प्रेमी, मधुर मिलन में,
आरक्त हो गए उसके गाल।
स्फुरण दौड़ गयी रोम- रोम में,
धूप हो गयी अरुणिम लाल।

विछुड़न के बाद विरहन ने
सुख के खोजे अपने ठाँव।
सूरज जा रहा अपने गाँव।

©ब्रजेन्द्रनाथ मिश्र


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